उपन्यास में गद्य की प्रधानता और उसकी भूमिका

उपन्यास में गद्य की प्रधानता और उसकी भूमिका साहित्य जन मंथन

आधुनिक काल के विभिन्न देनों में से एक, उपन्यास विधा समय के साथ अपने विकास के चरम स्तरों पर जा पहुँची है। उपन्यास जीवन की समग्रता को अपने अंदर समाहित करने वाली विधा है। यहाँ पर क्षणों , इकाइयों और हिस्सों में बाँट कर जीवन को देखने के बजाय जीवन को उसकी संपूर्णता और विविधता में देखने का प्रयत्न किया जाता है। और इस विविधता और विशालता को समटेने में गद्य से ज्यादा प्रभावशाली माध्यम नहीं हो सकता ।
हालांकि महाकाव्य की प्राचीन अवधारणा संस्कृत से होती हुई अपनी एक समृद्ध परंपरा लिए चल रही थी। परंतु महाकाव्य जो भले ही अपने विशाल आकार में जीवन को ही अभिव्यक्त करता था , अपने रूप के लिए पद्य शैली पर निर्भर था। यहाँ पर कवि महान से महान चरित्रों के जीवन और उनकी महानता का वर्णन पद्य शैली में करते थे। गद्य का आविर्भाव इसीलिए आधुनिक युग की महान घटना मानी जाती है जिसका संबंध बौद्धिकता, व्यक्तिवादिता और वैज्ञानिकता के साथ जोड़ा जाता है।
हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक पंडित रामचंद्र शुक्ल, आधुनिक काल को गद्य काल की संज्ञा देते थे। उनकी दृष्टि में गद्य का संबंध विचार से है, इस प्रकार गद्य शैली का महत्व स्वतः स्पष्ट हो जाता है। उपन्यास जैसा कि हम देख चुकें हैं ,एक आधुनिक विधा थी, जिसका जन्म ही विभिन्न प्रकार के वैचारिक आंदोलनों जैसे कि नवजागरण आदि के साथ हुआ। उपन्यास अपने समय व समाज का वह आख्यान बनने में सफल हुआ जिसने मध्यकालीन धर्म आधारित साहित्य चिंतन को झटके में बदल कर व्यक्ति केन्द्रित कला में बदल दिया।
उपन्यास में इसीलिए गद्य शैली को ही प्रधानता दी गयी जिसके वजह से विचारों का सीधा सम्प्रेषण संभव हो सका। इसके विपरीत काव्य/कविता बहुत स्तर तक पाठक की पुनर्व्याख्या पर निर्भर थे, क्योंकि कवि अभिधा, लक्षणा और व्यंजना के रूप में अपनी बात करते थे, जो पाठक के बौद्धिकता के स्तर के अनुरूप ही अपना सम्प्रेषण करवा पाते थे। गद्य की उपस्थिति, उपन्यास के भीतर, इसीलिए न केवल समय और युग की अनिवार्यता थी, बल्कि एक वैचारिक सहजता का आश्वासन भी देती थी, जो पाठकों से अपना सीधा-संवाद स्थापित करती थी।
अब तक तो हमने यह समझा कि गद्य रूप की उपस्थिति उपन्यास विधा के लिए क्यों अनिवार्य थी, अब हम उपन्यास के भीतर गद्य की प्रधानता को समझ सकते हैं।
हिन्दी के प्रारंभिक उपन्यास भले ही चंद्रकांता संतति की तिलिस्मी-ऐयारी की दुनियाँ को गद्य के रूप में प्रस्तुत करते थे, परंतु प्रेमचंद के आते-आते उपन्यास विधा अपने वयस्क रूप को प्राप्त कर चुकी थी। इसीलिए इन उपन्यासों में गद्य शैली भी अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में देखने को मिलती है। यहाँ पर गद्य का प्रयोग दो समानान्तर स्तरों पर दिखाई देता है: एक तो रचना के पात्रों के आपसी संवाद के रूप में और दूसरा, स्वयं रचनाकार के विचारों के प्रतिपादन के लिए। गद्य के प्रयोग से विचारों के सम्प्रेषण में न केवल सहजता आती है बल्कि सुसंबद्धत्ता भी दिखती है।
गद्य के प्रयोग से न केवल जटिल स्थितियों के चित्रण में सहायता मिलती है बल्कि पात्रों के मनोवैज्ञानिक अंकन में भी सहायता मिली। जैनेन्द्र, इलाचन्द्र जोशी और अज्ञेय के उपन्यास हिन्दी साहित्य के मनोवैज्ञानिक उपन्यासों में अगर श्रेष्ठ माने जाते हैं तो उसके पीछे कहीं-न-कहीं गद्य शैली की सरल और सहज सम्प्रेषण की शक्ति ही निहित है।
उपन्यास में गद्य रूप की भूमिका एक और रूप में हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों के संदर्भ में समझी जा सकती है। आंचलिक उपन्यासों से तात्पर्य उस रचना से है जो किसी क्षेत्र विशेष की भौगोलिक स्थितियों और उसके जन-जीवन की विशिष्टता को चलचित्र की तरह दिखलाता है। गद्य का सशक्त उपयोग इस प्रकार के उपन्यासों में बहुत ही प्रभावशाली रूप में दिखता है। आंचलिक उपन्यासों में अंचल ही नायक की भूमिका में होता है और इसीलिए किसी भौगौलिक अंचल को मानवीय रूप देने में गद्य की भाषा का योगदान अद्भुत होता है।
अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए हम उपन्यास में गद्य की भूमिका को और स्पष्ट कर सकते हैं। उपन्यास की विभिन्न शैलियों में आजकल , डायरी शैली, आत्मकथात्मक शैली , यात्रा वृतांत इत्यादि का प्रयोग हो रहा है । इन सब शैलियों में हम गद्य की सशक्त उपस्थिति पाते हैं। गद्य के प्रयोग से एक तरफ जहां इस प्रकार के उपन्यासों में विचारों का प्रवाह बना रहता है तो वहीं दूसरी तरफ मनोरंजकता का पुट भी आ जाता है। आत्मकथात्मक उपन्यासों में तो गद्य मन के विचारों और अपनी अनुभूतियों को प्रदर्शित करने का सबसे प्रभावी उपकरण (टूल) बन जाता है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि गद्य एक लेखन माध्यम के रूप में उपन्यास को इसकी मूल्यवत्ता और गंभीरता देने का कार्य करता है। और काव्य या कविता की तरह इसके प्रयोग में कलात्मकता की भी बहुत ज्यादा आवश्यकता नहीं रहती जबकि कलात्मकता के अभाव में कविता में सपाटबयानी का डर बना रहता है। गद्य में इस प्रकार की चिंता नहीं रहती और इसका प्रमाण है कि हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यास गद्य में रचित होने के बावजूद भी अपनी कलात्मकता के लिए कालजयी और क्लैसिक माने जाते हैं।

अदिति भारद्वाज
पीएच डी शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय 

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