साहित्य और समाज की भिन्नता और अंतर्संबंध

साहित्य और समाज की भिन्नता और अंतर्संबंध साहित्य जन मंथन

साहित्य की परिकल्पना मनुष्य ने अपनी आदिम अवस्था में ही तय कर ली थी, हालांकि उसका स्वरूप लिखित न होकर मौखिक, चित्रित और पूर्णतः असम्बद्ध था। भीमबेटका के भित्तिचित्रों में उत्सव मनाते और शिकार करते आदि मनुष्यों के चित्रों ने एक आदिम कहानी को ही तो गुफा के निर्जीव पत्थरों पर जीवंत और मूर्त कर दिया था । युग बदला, समाज और व्यक्ति के संबंध और व्यवस्थित और जटिल हुए और इसके साथ ही मनुष्य जीवन और समाज की आकांक्षाओं और भावनाओं में भी विविधता और जटिलताएँ आई। इन सबके अनुरूप ही साहित्य ने भी अपना एक बहुआयामी रूप पाया और मानवीय जीवन के परिपूर्ण क्षणों के सहज़ उच्छवास के रूप में सीमित न रह कर मानव के मानसिक और भौतिक दोनों ही स्तरों को व्याख्यायित करने में सफल हुआ। साहित्य और समाज की भिन्नता और अंतरसंबंधों की व्याख्या हम इसी परिप्रेक्ष्य में कर सकते हैं।
समाज की व्याख्या समाजशास्त्रियों ने व्यक्तियों के एक ऐसे समूह के रूप में की है, जिसके केंद्र में अन्योन्याश्रयता रहती है। सामाजिक इकाई में व्यक्ति सिर्फ अपने व्यक्तिगत पहचान के लिए नहीं बल्कि समाज के विभिन्न सम्बन्धों के भी निमित्त जाना जाता है। साहित्य की पूरी पृष्टभूमि व्यक्ति के इसी वैयक्तिक और सामाजिक सम्बन्धों के विविध आयामों को दिखलाने की पहल है।
परंतु क्या वस्तुतः ही समाज अपने समय के साहित्य को प्रभावित या प्रेरित करता है? या क्या किसी युग विशेष का साहित्य अपने देश/काल और समाज का प्रतिनिधित्व करता है? ये सब कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनसे साहित्य और समाज की भिन्नता के स्तर स्पष्ट हो जाते हैं। साहित्य की रचना करने वाला आवश्यक नहीं कि समाज का हू-ब-हू चित्रण अपनी लेखनी से जीवंत कर दे। क्योंकि अगर ऐसा होता तो साहित्य में किसी सुदूर इतिहास की किसी घटना या उस काल के समाज का चित्रण करना, साहित्यकार के निजी समय/देश काल के लिए बिल्कुल ही असंगत हो जाता है। परंतु जिस प्रकार से हम ऐतिहासिक उपन्यासों के रचना- संसार को वर्तमान समय के लिए भी प्रासंगिक मानते है, वह साहित्य के कालजयी होने का ही प्रमाण देता है।
साहित्य और समाज की भिन्नता का एक दूसरा आयाम वहाँ स्पष्ट होता है, जब रचना अपने समय के यथार्थ और उसकी विडम्बना को दरकिनार करते हुए अपने कथ्य के माध्यम से एक अलग ही कल्पनालोक का सृजन करती है। यहाँ पर रचनाकार न केवल अपने आदर्शों के संसार का निर्माण करता है बल्कि अपने समय व समाज की समस्याओं का समाधान या विकल्प भी प्रस्तुत करता है। उदाहरण के लिए, साहित्य की विधाओं में प्रयुक्त जादुई यथार्थवाद, सामाजिक यथार्थ के इन्हीं विकल्पों को कल्पना और फैंटासी के बिंबों में ढाल कर समाधान के रूप में प्रस्तुत करता है। परंतु समाधान या विकल्प की स्थितियाँ सामाजिक संदर्भों में संभव नहीं हो पाती हैं।
अब तक तो बात हुई साहित्य के फॉर्म या वस्तुरूप पर, थोड़ा आगे बढ़कर अगर रचना के पात्रों के स्तर पर उतरा जाये तो साहित्य और समाज की विभिन्नता और स्पष्ट की जा सकती है। किसी रचना विशेष के पात्र बहुत अर्थों में रचनाकार की मानस में उत्पन्न होते हैं, भले ही उनकी परिकल्पना रचनाकार ने अपने ही इर्द-गिर्द की दुनियाँ से की होती है । ऐसे में रचनाकार की विचारधारा या वैयक्तिकता पात्रों के क्रिया-व्यापार में झलक पड़ती है। उदाहरण के लिए अगर प्रेमचंद या अज्ञेय के उपन्यासों को लिया जाए तो प्रायः हम यह पाते हैं कि मुख्य पात्रों के माध्यम से अंततः रचनाकार को ही ध्वनि मिलती है। इस प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि साहित्य विशेष में वर्णित समाज को रचनाकार की जीवन-दृष्टि से देखने की बाध्यता हो जाती है। जबकि भौतिक समाज के क्रिया-व्यापार, घात-प्रतिघात, घटनाएँ यह सब किसी पूर्व- नियोजित दिशा में नहीं बल्कि स्वतः-स्फूर्त और व्यावहारिक होती हैं।
इसी प्रकार, दिन-रात के पहियों में पिसती ज़िंदगी और उसे जीने वाले लोग भी रचना से इतर, समाज के बड़े कैनवास पर किसी पूर्व नियोजित नियति को नहीं बल्कि क्षणों में बदलने वाले स्थितियों को जीते हैं। नयी कहानी के लघुमानव और क्षणवाद की पूरी संकल्पना को इससे समझा जा सकता है, जहां पर मनुष्य किसी विराट चेतना या उद्देश्य से चालित महाकाव्य का महानायक नहीं बल्कि समय और समाज के सम्बन्धों में फंसा एक साधारण मनुष्य होता है, जिसे साहित्य की तरह जीवन में अपनी स्थितियों से पलायन की सुविधा नहीं मिलती है।
अपनी व्याख्या को आगे बढ़ाते हुए हम साहित्य और समाज के अंतरसंबंधों पर भी विचार कर सकते हैं। समाज और व्यक्ति के अन्योन्याश्रय सम्बन्धों की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं, ठीक उसी प्रकार साहित्य और समाज के सम्बन्धों मे भी इसी प्रकार की अंतर्निर्भरता निहित है। साहित्य को अपनी विषय-वस्तु और मूल-प्रेरणा के रूप में कच्चामाल समाज ही प्रदान करता है। इतना ही नहीं, व्यक्ति की विविधता के रूप में पात्रों की कल्पना और सामाजिक यथार्थ की भावभूमि के रूप में साहित्य की मूल संवेदना भी साहित्य को समाज से ही ग्रहण करना पड़ती है।
साहित्य को मनुष्य की अंतःप्रेरणा का कलात्मक आख्यान मानने वाले आलोचकों ने साहित्य के लिए मनुष्य की आवश्यकता और इस प्रकार समाज की अनिवार्यता को सहज ही स्वीकार किया है। आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी साहित्य का मूल आधार ही मनुष्य को मानते थे। व्यक्तिवादी अज्ञेय भी जब व्यक्ति की स्वतन्त्रता की बात करते थे तब वह उसे समाज से स्वतंत्र नहीं बल्कि समाज में स्वतंत्र देखने के आग्रही थे। इन सब व्याख्याओं में एक अंतर्धारा निरंतर दिखती है जो साहित्य के लिए समाज की आवश्यकता पर ज़ोर देती है। साहित्य इसलिए न केवल अपने समय बल्कि अपने समाज और परिवेश के यथार्थ और उसकी विविधताओं को विभिन्न कोणों से पकड़ने वाला प्रिज़्म बन जाता है। समाज और व्यक्ति के जीवन को ही साहित्य आधार बनाता है और फिर अपनी कल्पना की कूची से उन खाली जगहों में रंग भरने का भी काम करता है जिससे व्यक्ति और जीवन की एक मुकम्मल तस्वीर बनती जाती है।
साहित्य जहां एक भिन्न स्तर पर समाज के विभिन्न समुदायों और उनके संघर्षों और स्वप्नों को अभिव्यक्त करता है तो वहीं दूसरी ओर उन समूहों को भी केंद्र में ले आता है जो हाशिये पर रहकर अभिशप्त जीवन जीने को विवश हैं। साहित्य में दलित समाज के सदियों से दबाये गए स्वर को मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है। साहित्य ने स्त्रियों और अल्पसंख्यकों को भी अपने हिस्से का सच सुनाने का अवसर दिया है। और इन सबमें सबसे अहम यह रहा है कि समाज के इन सभी वर्गों की उपस्थिति जब साहित्य में हुई तो वह सिर्फ साहित्य तक ही सिमटी नहीं रही बल्कि परावर्तित होकर पुनः समाज में विचार और बहस के लिए आ गयी और इस प्रकार से समाज को प्रभावित किया।
उपर्युक्त पूरे विश्लेषण से जो बात सबसे प्रमुखता से निकाल कर आती है वह यह है कि साहित्य और समाज कि क्रिया-प्रक्रिया, द्विधारात्मक है। दोनों ही जहां एक-दूसरे से प्रभावित और प्रेरित होते हैं और वहीं दूसरी ओर एक-दूसरे को परिवर्तित और संवर्धित भी करते हैं।
साहित्य की सर्जना समाज में ही होती है जिसपर व्यक्ति के स्वानुभूति और स्वायत्तता की मुहर लगी होती है। व्यक्ति रूप की विविधता और अनुभवों की नवीनता ही साहित्य को एक बहुआयामी विधा बनाती है। और इसी पक्ष से साहित्य और समाज की भिन्नता और अंतरसंबंधों की भूमिकाएँ स्पष्ट होती हैं।

अदिति भारद्वाज
पीएच डी शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय 

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