‘मीठी नीम’ उपन्यास के जरिये पर्यावरण संरक्षण की अपील

‘मीठी नीम’ उपन्यास के जरिये पर्यावरण संरक्षण की अपील साहित्य जन मंथन

Meethi Neem: सारांश
भारतीय संस्कृति हमेशा ही प्राकृतिक संपदा के संरक्षण का संदेश देती रही है, प्राचीन काल से ही ऋषि मुनियों तथा महापुरुषों ने भारतीय प्राकृतिक संपदा जल, जंगल और जमीन के प्रति पर्यावरण चेतना को जनजीवन से जोड़ने की कोशिश की है, इनके अनुसार प्रकृति से उसका प्रेम और साहचर्य ही मनुष्य को पर्यावरण प्रदूषण से बचा सकता है, किंतु आजकल जनसंख्या विस्फ़ोट, औद्योगिकीकरण, शहरीकरण व तकनीकी विकास के कारण हमारे देश के वन और वनों की अमूल्य संपत्ति का दिनोंदिन ह्रास हो रहा है और स्वच्छ व शुद्ध प्राकृतिक पर्यावरण दूषित होने लगा है जिसके अनेकों कारण है जैसे ‘प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक शोषण, जनसंख्या में वृद्धि और अनियंत्रित औद्योगिकीकरण और नियोजित कंक्रीट भवनों का निर्माण, पर्यावरण असंगत विकास योजनाएं, परिवहन साधनों की संख्या में वृद्धि, खनन द्वारा खनिजों की प्राप्ति, जंगलों के कटाव’ (१) आदि के कारण पर्यावरण प्रदूषण तथा पारिस्थितिक असंतुलन की समस्या सामने आती है, इसका चित्रण हिंदी उपन्यासों में भी किया गया है। कुसुम कुमार का ‘मीठी नीम’ उपन्यास एक ऐसी ही सशक्त कृति है। ‘मीठी नीम’ पर्यावरणीय चिंताओं और पर्यावरण की ओर संरक्षण की जन जागृति पर आधारित इक्कीसवीं सदी का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। लेखिका कुसुम कुमार इस उपन्यास में कई प्रश्नों एवं परिस्थितियों से हमारा सामना करवाती है और हरे की वकालत में प्रतिबद्ध रहने वाली पात्र ओमना के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण की अपील करती दिखाई देती है।

बीज शब्द
पर्यावरण, पर्यावरण संरक्षण, पारिस्थितिक असन्तुलन, प्रकृति, हरियाली

भूमिका
हिंदी उपन्यासों में पर्यावरण का विषय अत्यंत ज्वलंत प्रश्न बनकर उभरा है कई लेखक और लेखिकाओं ने पर्यावरणीय समस्या को एक गंभीर विषय के रूप में लिया है और अपने उपन्यासों में प्राकृतिक संपदा जल, जंगल और जमीन के असीमित दोहन और उससे उत्पन्न होने वाली समस्याओं का बखूबी चित्रण किया है तथा समाज में यह उद्देश्य प्रसारित करने का प्रयत्न किया कि जब तक मानव एवं प्राकृतिक पर्यावरण में परस्पर आदान-प्रदान परक सामंजस्य नहीं होता तब तक विकास की गति अवरुद्ध ही रहेगी और यूं ही हमारे प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास होता रहेगा जिसका खामियाजा स्वयं मानव जाति को उठाना पड़ेगा। ऐसे कई बेहतरीन उपन्यास हिंदी में लिखे गए हैं जिनमें पर्यावरण के संरक्षक को मूर्त रूप में दिखाया गया। कुसुम कुमार का ‘मीठी नीम’ एक ऐसा ही उपन्यास है जिसमें मानवीय क्रियाकलापों द्वारा होने वाले प्रकृति में परिवर्तनों को लक्षित किया गया है और इससे पारिस्थितिक संतुलन भी बिगड़ने लगा है जिससे ऋतुएं भी समय से नहीं आतीं, धरती से हरियाली का स्थान सीमेंट की बनी पक्की सड़कों और बहुमंजिला इमारतों ने लिया है। इसी की ओर संकेत करते हए उपन्यास में पृथ्वी को हरा भरा बनाने की अपील की गई है।

उपन्यास का आरंभ ही ओमना के हरित प्रेम से होता है, प्रयोगों की जिद, कल्पना के पंख और उसका अपना विश्वास उसके साथ है वह इसी के बल पर अपने आसपास हरे को प्रसारित करने के निरन्तर नए नए प्रयोग करती रहती है। उसका अटूट विश्वास है कि उसका हरे को विस्तारित करने का यह स्वप्न कभी तो यथार्थ में परिवर्तित होगा ही। चूँकि ओमना निरन्तर हरित हरे की ओर अग्रसर है इसलिए लेखिका ओमना के माध्यम से यही संदेश जन जन तक प्रेषित करना चाहती है कि हमें भी अपना मन हरे की ओर ले जाना चाहिए। हरा रंग ऊर्जा का प्रतीक है, स्फूर्ति – ताज़गी का प्रतीक है, जीवन का प्रतीक है और यही हरा रंग हरियाली यानी हरी भरी धरा में विद्यमान है कहने का तात्पर्य यह है कि यदि सर्वत्र हरियाली, हरित हरा फैला होगा तो जीवन भी ऊर्जा, स्फूर्ति, ताज़गी से पूर्ण होगा और इसी जीवन को सुरक्षित रखने के लिए हरे को सुरक्षित रखना अनिवार्य हो जाता है। सम्पूर्ण संसार में प्रकृति ही ऐसी है जो न ऊब पैदा करती है न ही थकाती है। उपन्यास की पात्र ओमना यही संदेश देती है कि “मन को कहीं न कहीं रमना होता है। हरे में रमे, तो मनुष्य की तुलना में कहीं वरद।”(२) मनुष्य में तो एक समय के बाद विरक्ति उत्पन्न हो सकती है लेकिन प्रकृति हमें सदा ही ऊर्जस्वित करती है। प्रकृति हमें हमारी क्षमताओं से परिचित कराती है और वैसे भी ‘हम ऐसी दुनिया में रहते हैं जिसमें प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। जल, वायु, खनिज, तेल, घास के मैदान, सागर, कृषि और मवेशियों से मिलने वाली सभी वस्तुएं – ये सभी हमारी जीवन रक्षक व्यवस्थाओं के अंग हैं। जैसे जैसे हमारी जनसंख्या बढ़ेगी और हममें से हर एक व्यक्ति द्वारा संसाधनों का उपयोग भी बढ़ेगा, तो पृथ्वी के संसाधनों का भंडार निश्चित रूप से कम होगा।’(३) ऐसे में आवश्यकता है संसाधनों के सीमित उपयोग की जिससे हमारा ही नहीं आगे आने वाली पीढ़ियों के जीवन सुरक्षित रह सके। इसके साथ ही पर्यावरण संरक्षण के प्रति समाज को जागरूक कर अपनी प्रतिबद्धता भी सुनिश्चित करनी होगी। जो कि ओमना बखूबी करती है उसे दादी बनने की खुशी है लेकिन अपने पौधों को छोड़कर वह बेटे के साथ न जाने का निश्चय करती है। यही प्रकृति प्रेम उसे एक ऊँचे आसन पर प्रतिष्ठित करता है जिससे प्रेरणा पाकर एक नहीं अनेकों ओमना बन सकती है। जैसे उपन्यास में प्रीति और शांता बनी।

जनजीवन की सुविधाओं के लिए, शहरी विकास के लिए संसाधनों का कुछ प्रयोग तो अवश्य ही किया जाता है जैसे दिल्ली को ही लें, दिल्ली में मेट्रो सेवा शुरू हुई, सभी दिल्लीवासियों के लिए यह राहत की बात थी, लेकिन लेखिका की दृष्टि प्रकृति की ओर भी रही है। एक ओर ओमना के भीतर गाड़ी में बैठने की उत्सुकता है तो दूसरी ओर जिन रास्तों से होकर मेट्रो गुजरी है वह भी उसकी दृष्टि से ओझल नहीं रह सका है। यहाँ कुसुम कुमार लिखे बिना नहीं रह पाती कि “इस गाड़ी की सफलता की पृष्ठभूमि में शहर के कुछ वयोवृद्ध वृक्षों का योगदान। यह सच्चाई सरकारों, नौकरशाहों से अधिक पैदल पथिक जानते।”(४) चाहे मैट्रो का विस्तार हो अथवा रोड़ी तारकोल की सड़कें बनानी हों, कुछ प्राप्त करने के लिए कुछ त्याग करना आवश्यक हो जाता है, यही कारण है कि बीच में पड़ने वाले हरे भरे, छोटे बड़े वृक्ष तो काट ही दिए जाते हैं। दिल्ली के विकास की गति को देखकर ओमना कहती है “दिल्ली नाम की राजधानी, जो निखालिस पत्थर सीमेंट का जंगल, जहाँ किन्हीं जटाधारी वृक्षों की बलि सिर्फ इसलिए चढ़ाई जाती : रोड़ी पत्थर, तारकोल की सड़कों, पुलों को विस्तार देना है।”(५) जब विकास की गति तीव्रता से बढ़ने लगे तो समझ लेना चाहिए कि प्राकृतिक संसाधन भी तेजी से घटने लगे हैं। मानवीय क्रियाकलापों से हमारे पर्यावरण का अधिकाधिक ह्रास हो रहा है। विज्ञान के क्षेत्र में असीमित प्रगति तथा नए आविष्कारों की स्पर्धा के कारण आज का मानव प्रकृति पर पूर्णतया विजय प्राप्त कर लेना चाहता है। इस कारण प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया है। वैज्ञानिक उपलब्धियों से मानव प्राकृतिक संतुलन को उपेक्षा की दृष्टि से देख रहा है दूसरी ओर धरती पर जनसंख्या की निरन्तर वृद्धि, औद्योगिकीकरण एवं शहरीकरण की तीव्र गति से प्रकृति के हरे भरे क्षेत्रों को समाप्त किया जा रहा है। उपन्यास में भी लेखिका जगह जगह टिप्पणी करती चलती है कि फलां पुल बनाने के लिए एक लाख पेड़ काट दिए गए या मेट्रो के लिए दस हज़ार वृक्षों की बलि चढ़ा दी गयी। विकास बनाम विनाश यहीं से शुरू होता है, विकास के लिए प्रकृति का विनाश स्वयं ही आरम्भ हो गया है। ओमना का चिंतित होना जायज़ है, वह सोचती है कि “जाने अनजाने, विकास की प्रत्येक ईंट, हरियाली से बदला लिए बिना क्यों न ठुकती, जानने की इच्छा होती।”(६) यही कारण है कि ओमना अकेली पर्यावरण संरक्षण की ओर कदम बढ़ा चुकी है और दूसरों को भी प्रेरित करती है कि ज़्यादा से ज़्यादा वृक्ष रोपो, पौधे लगाओ, उसे ऐसी लगन है हरे के प्रति कि जहाँ धूप का एक टुकड़ा, या आठ इंच जगह भी देखती है वहीं एक पौधा रोप देती है। ‘जिस तरह इलाज से बेहतर विकल्प उसकी रोकथाम होती है ठीक उसी तरह पर्यावरण को हानि पहुँचाने के बाद उसकी भरपाई करने की तुलना में पर्यावरण का संरक्षण आर्थिक दृष्टि से अधिक व्यवहारिक है।’(७) जिससे प्रकृति को संबल प्राप्त हो सके और हमें जीवन मिल सके। ‘मीठी नीम’ की ओमना निडर, साहसी और प्रकृति प्रेमी महिला है जो न केवल अपने पेड़ पौधों से लगाव रखती है बल्कि पूरी जी जान से उनकी रक्षा भी करती है।

पिछले कई वर्षों से मानवीय क्रियाकलापों द्वारा पारिस्थितिक तंत्र में परिवर्तन हुआ है, उसका सीधा प्रभाव पर्यावरण पर भी पड़ा है, पारिस्थितिक असंतुलन से मौसम में किस तरह परिवर्तन हुए हैं और निरन्तर हो रहे हैं यह किसी से छिपा नहीं है। मौसम पर अब मौसम विभाग का नियंत्रण नहीं रहा है, प्रतिवर्ष यही इच्छा होती है कि मानसून समय से आये, पानी सही मात्रा में बरसे, जाड़ा, गर्मी सभी उचित मात्रा में हों, लेकिन यह इच्छा पिछले कई वर्षों से पूरी नहीं हो पा रही है या कहें अब आशाओं में बदलती जा रही है। सर्दी में ठंड का अहसास नहीं होता, गर्मी में अति गर्मी और वर्षा में कभी बेहिसाब बारिश या उम्मीदों पर ही पानी फिरा देती है, बाढ़, सूखा, भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएं आम बात हो चली हैं, पूरा उपन्यास ही इन घटनाओं को केंद्रित करके लिखा गया है। ओमना कहती है “आज सात दिसंबर, ठंड का नामोनिशान नहीं°°°°जाड़ा ही क्यों, गर्मी, वर्षा, वसंत सभी ऋतुएँ हमारे हाथ से जाती रहीं। हम नियम तोड़ते गए क्रुद्ध प्रकृति हमारी उम्मीदों पर पानी फेरती।°°°समय पर कोई ऋतु साथ न देती। विशेषज्ञ कारण जानते निदान नहीं।”(८) आधुनिक सुविधाभोगी जीवन शैली ने पर्यावरण पर बहुत गहरा प्रभाव डाला है जिसके कारण न केवल प्रकृति से हरे की विदाई हो रही है बल्कि मौसम भी साथ नहीं दे रहे। विशेषज्ञ कारण जाने न जाने लेकिन ओमना बखूबी जानती है। वह कहती है “और दौड़ाओ सड़कों पर बड़ी बड़ी गाड़ियां और बनाओ सौ सौ मंजिला इमारते, उसी का नतीजा है यह।”(९) जिस तरह की परिस्थितियां आज के समय मे उत्पन्न हुईं हैं जहां सब यंत्रवत हो जीवन की आपाधापी में व्यस्त हैं वहां प्रकृति की वकालत करने वाली ओमना निडर हो खड़ी है। एक समय ऐसा भी आता है जब ओमना वोट न देने का निश्चय करती है क्योंकि उसे लगता है वोट देने से बेहतर है जमीन में एक वृक्ष रोप देगी। ऐसा प्रतीत होता है कि ओमना राजनीति को समझ चुकी है। एक वोट से वह अपने मन का प्रतिनिधि नहीं चुनना चाहती वह नई तरह से लोकतंत्र को मजबूत करना चाहती है क्योंकि उसका मानना है कि “पानी और हरियाली का निजाम देश के निजाम से कहीं बेहतर। बेहतर मिट्टी, पानी, बीज और दो चार ढीठ धरती के पक्ष में बोलते। देश का निजाम डेंगू, मलेरिया, पानी के गड्ढों को स्वायत्तता के झोले में डाल, किन्हीं बड़े प्रश्नों की ओर मुड़ जाता।”(१०) ‘मीठी नीम’ उपन्यास में लेखिका की दृष्टि काष्ठ चोरी की तरफ भी गयी है। मतिराम के माध्यम से बेशक यह छोटे स्तर से शुरू हुई, रागमाला परिसर से नए पौधों की चोरियों से लेकिन मतिराम कुछ समय में ही इतना धन अर्जित कर लेता है जैसे वह कोई धन्ना सेठ हो। यही छोटी छोटी चोरियां बड़े स्तर तक चली जातीं हैं और वनों का अवैध कटान शुरू होता है। उपन्यास में भले ही यह सीमित स्तर पर दिखाया गया हो। स्कूल में हरा भरा वृक्ष रातों रात गिर जाता है और किसी को खबर तक नहीं लगती और अगली सुबह उसे इतनी जल्दी उठाया जाता है जैसे मरे हाथी का मोल जीवित से कहीं अधिक होता है।

कुसुम कुमार उपन्यास में अंत तक मुख्य पात्र ओमना के माध्यम से हरियाली का प्रसार करने में अग्रसर दिखाई देती हैं। हरित हरा का यह संकल्प जिस तरह पात्र ओमना ने लिया, लेखिका का उद्देश्य इसे प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में उजाकर करना है। उपन्यास में लेखिका ने पर्यावरणीय संकट को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया है तथा यह अपील की है कि पृथ्वी को जितना हो सके हरा भरा बनाने में योगदान दें क्योंकि “धरती के गुर्दे हरे रहेंगे तभी तो हमारे आपके गुर्दे स्वस्थ रह सकेंगे।”(११)

निष्कर्ष
‘मीठी नीम’ उपन्यास में केवल समस्याओं को ही रेखांकित नहीं किया गया है बल्कि कुछ हद तक उनका समाधान भी किया है। ओमना जहाँ रहती है यानी रागमाला परिसर, उसकी साठ प्रतिशत भूमि हरियाली के लिए छोड़ दी गयी है। हरियाली की दृष्टि से ऐसा करने वाला कोई पर्यावरण प्रेमी ही होगा जिसे देश की आम जनता के स्वास्थ्य की भी उतनी ही चिंता हुई होगी जितनी खास लोगों की। इसी तरह यदि सबकी सोच परिवर्तित हो जाये, अपने आसपास हरे भरे वृक्षों के लिए स्थान बनाये जाने लगें। इसके साथ ही आधुनिक तकनीक का प्रयोग सीमित मात्रा में ही किया जाए क्योंकि सभी एक साथ एयरकंडीशनर चलाने लगें तो धरती का क्या शहर का तापमान कहाँ से कहाँ पहुँच जाएगा। इसलिए जितना आवश्यक हो उतना ही प्रयोग करना चाहिए। यह पारिस्थितिक असंतुलन से उत्पन्न प्रभावों को यथार्थ रूप में चित्रित करने वाला ऐसा अनोखा उपन्यास है जो न केवल इस असंतुलन को ही रेखांकित करता है बल्कि यह परिस्थितियां निर्मित ही क्यों हुईं इस ओर भी इशारा करता है। ‘मीठी नीम’ पर्यावरणीय चिंताओ से रूबरू कराते हुए पर्यावरण संरक्षण की बेजोड़ कृति है, जिसमें यह निहित है कि पृथ्वी के गुर्दे सही सलामत रहेंगे तभी हमारा जीवन बचा रह सकता है इसलिए हरियाली को सेवा और सुकृत समझना चाहिए उसे मुसीबत की तरह नहीं देखना चाहिए। ‘मीठी नीम’ पर्यावरण पर चिंतन करते हुए एक ऐसे सशक्त उपन्यास के रूप में हमारे सामने आता है जो शरीर के घाव दिखाकर उसके उपचार के रूप में व्याख्यायित होता। घाव यह है कि पारिस्थितिक असंतुलन निरन्तर बढ़ रहा है और इसका उपचार यह होगा कि प्रकृति, पर्यावरण को बचाने का जिम्मा उठा लिया जाए। जब तक घाव से होने वाली समस्याओं को नहीं बताया जाएगा तब तक व्यक्ति घाव ठीक करने का सोचेगा ही नहीं। उसके मन में कहीं न कहीं यह भी आ सकता है कि शायद यह घाव स्वयं ही ठीक हो जाये। ऐसे में आवश्यकता होती है जागरूकता की जिसका बीड़ा ओमना जैसी स्त्रियां उठाती हैं और ‘पर्यावरण को हानि पहुँचाने वालों के साथ साथ उसे सँवारने; संवारते, प्राण न्योछावर करने वालों को भी आमने सामने ला खड़ा करता है – मीठी नीम’(१२)

सन्दर्भ

१. सुमेष, ए.एस, सम्पादक, समकालीन हिंदी साहित्य में पर्यावरण विमर्श, अमन प्रकाशन, कानपुर, प्रथम संस्करण – २०१६, पृष्ठ संख्या – १८
२. कुमार, कुसुम, मीठी नीम, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम पेपरबैक संस्करण-२०१२, पृष्ठ संख्या – ९४

३. भरुचा, इराक, पर्यावरण अध्ययन, ओरियंट ब्लैकस्वॉन,नई दिल्ली, दूसरा संस्करण-२०१५, पृष्ठ संख्या – ४
४. कुमार, कुसुम, मीठी नीम, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम पेपरबैक संस्करण-२०१२, पृष्ठ संख्या – ११६
५. वही, पृष्ठ संख्या – २७२
६. वही, पृष्ठ संख्या – ११६
७. भरुचा, इराक, पर्यावरण अध्ययन, ओरियंट ब्लैकस्वॉन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण-२०१५, पृष्ठ संख्या – ७
८. कुमार, कुसुम, मीठी नीम, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम पेपरबैक संस्करण-२०१२, पृष्ठ संख्या – १२२
९. वही, पृष्ठ संख्या – ९६
१०. वही, पृष्ठ संख्या – ३९०
११. वही, पृष्ठ संख्या – १४
१२. वही, पुस्तक आवरण से

 

‘मीठी नीम’ उपन्यास के जरिये पर्यावरण संरक्षण की अपील साहित्य जन मंथनकमलेश,
शोधार्थी, पीएच.डी हिंदी,
हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय,
ईमेल – Kamleshrajmigh@gmail.com,

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