कबीर की सामाजिक चेतना(Kabir ki samajik chetna – Pavan Kumar)

कबीर की सामाजिक चेतना(Kabir ki samajik chetna - Pavan Kumar) साहित्य जन मंथन

Kabir ki samajik chetna – Pavan Kumar: भक्ति काल का आरंभ निर्गुण भक्ति से होता है। और इसका प्रवर्तक कबीर को माना जाता है। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन को उन्होंने दिशा भी दी और दृष्टि भी। वे अपने युग के महान कवि, क्रांतिकारी, भक्त, विचारक और तत्वदृष्टा थे तथा अपने जीवन काल में ही युगपुरुष की तरह प्रतिष्ठित हो गए थे लेकिन कबीर जितने लोकप्रिय रहे हैं उतने ही विवादास्पद भी। जिस विचारधारा के प्रचार के लिए उन्होंने जीवन संघर्ष किया उसी कारण किसी ने उन्हें उपेक्षित किया तो किसी ने प्रतिष्ठित अर्थात जन्म से लेकर मृत्यु तक उनका जीवन विवादास्पद ही बना रहा।

कबीर की उत्पत्ति को लेकर भी अनेक प्रवाद प्रचलित हैं लेकिन खोजों के बावजूद भी न उनके जन्म स्थान और मृत्यु स्थान का ठीक-ठीक पता लगा है न ही उनकी जन्मतिथि मृत्यु तिथि का। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार –

‘काशी में स्वामी रामानंद का एक भक्त ब्राह्मण था जिसका किसी विधवा कन्या को स्वामी जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद भूल से दे दिया फल यह हुआ कि उसे एक बालक उत्पन्न हुआ जिसे वह लहरतारा के ताल में फेक आई अली या नीरू नाम का जुलाहा उस बालक को अपने घर उठा ले आया और पालने लगा यही बालक आगे चलकर कबीरदास कबीरदास हुआ’

अंत में यह मान लिया गया है कि वह विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे और लहरतारा ताल के पास फेंके हुए नीरू नीमा नामक जुलाहे को मिले उन्होंने ही उनका पालन पोषण किया।

कबीर ने अपने को बार-बार जुलाहा कहा है ‘तू ब्राह्मण मैं काशी का जुलाहा’ जुलाहा कपड़ा बुनने का व्यवसाय करते हैं और व्यवस्था में अत्यंत निम्न कोटि में माने जाते हैं लेकिन कबीर कहते हैं ‘नींच कुल जुलाहा भइयो गुनी गंभीर’ अर्थात जुलाहा नीच कुल का तो है पर गुनी गंभीरा है तो है पर गुनी गंभीरा है परंतु इन सब में वे अपने को कहीं पर मुसलमान नहीं कहते तो कुछ ब्राह्मणवादी उन्हें पैदाइशी उन्हें पैदाइशी मुसलमान नहीं मानते क्योंकि कबीर ने कहा
‘पूरब जनम हम ब्राह्मण होते,ओछे करम तप हीना।
रामदेव की सेवा चुका,पकरि जुलाहा कीना।।’

लेकिन यह पद बीजक नहीं है इस विषय में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें सद्य धर्म परिवर्तित मुस्लिम जुगी परिवार में पैदा हुआ मान लिया
‘ आध्यात्मिक पक्ष में निसंदेह बहुत ऊंचा भाव है पर कबीर ने कुछ इस ढंग से उभय विशेष बताया है कभी-कभी वे आध्यात्मिक सत्य के अतिरिक्त एक सामाजिक सत्य की ओर इशारा कर रहे हैं उन दोनों वयनजीवी नाथ माता लंबी क्राइस्ट योगियों की जाति सचमुच ही ना हिंदू ना मुसलमान थी कबीर जिस जुलाहा जाति में पलित हुए थे काले हुए थे, वह एक आध आध पुश्त पहले के योगी जैसी किसी आश्रम भ्रष्ट जाति जाति से मुसलमान हुई थी या अभी होने की राह में थी

लेकिन फिर भी उनके हिंदू या मुसलमान होने में मतभेद बने रहे हिंदुओं उनके हिंदू होने का साक्षी उठाते तथा मुसलमानों ने मुसलमान कुल में पैदा होने की बात सिद्ध वी वी अंत में उनके गुरु कौन थे इसमें भी विवाद भी विवाद भी विवाद कबीर के गुरु रामानंद को ही मान लिया जाता है क्योंकि कबीरपंथी मुसलमानों का कहना है कि कबीर ने प्रसिद्ध सूफी मुसलमान फकीर शेख तकी से दीक्षा दी थी

कबीर दास का उद्भव किस काल में का उद्भव किस काल में काल में हुआ था उस काल की परिस्थितियां अत्यंत विषम थी की परिस्थितियां अत्यंत विषम थी परिस्थितियां अत्यंत विषम थी मुसलमानों के लगातार आक्रमण एवं अत्याचारों ने हिंदू जनता की धार्मिक एवं जातीय नींव को हिला दिया था भारतीय समाज में एक नए धर्म और एक नई संस्कृति का प्रवेश आक्रमण के रूप आक्रमण के रूप में हो चुका था ऐसी व्यवस्था में संघर्ष का प्रारंभ होना स्वाभाविक था हिंदू धर्म और धर्मावलंबियों की स्थिति भी कुछ अच्छी नहीं थी धर्म के क्षेत्र में अनेक संप्रदायों एवं मत लता मतान्तरों का जन्म हो चुका था पारस्परिक टकराव एवं द्वंद के कारण लोग ऐसी स्थिति में पहुंच गए थे जहां से आगे के मार्ग का आभास भी नहीं हो रहा था चारों और अंधविश्वास और अन आस्था का वातावरण व्याप्त है ऐसी अवस्था में अगर समाज का कोई वर्ग सर्वाधिक परेशान था तो वह था जनसाधारण यह वर्ग अनिश्चय की अवस्था में था कहां जाएं और क्या करें लोग कुछ भी कुछ भी समझ नहीं पा रहे थे

इस बात से किनारा नहीं किया जा सकता कि कबीर ने समाज की समस्याओं पर अपनी वाणी मुखरित की है जो कि उस समय की सबसे अधिक जरूरत थी समाज की कौन सी ऐसी कौन सी ऐसी समस्या है जिसके पीछे तर्क नहीं बल्कि भीड़ की चाल है उस पर विचार तू निर्गुण विचार तू निर्गुण निर्गुण कवियों ने ही किया है निर्गुण संतों ने जीवन को निसार नहीं बल्कि जीवन की असारता पर ही विश्वास किया है हम अवश्य मान सकते हैं कि सकते हैं कि सकते हैं कि यह कवि भड़के हुए से हुए से थे यह बात स्वीकार की जा चुकी है कि संतों में जो कवि हैं उन्होंने जीवन की समस्याओं को झेला था तभी तो वे उन समस्याओं पर अपनी वाणी से प्रहार करते थे

संतो के बारे में तुलसी आदि ने यह कहा है कि
‘ यह सब नीची जाति के थे इसीलिए विद्वानों का विरोध करना यह अपना प्रमुख कार्य मानते थे लेकिन यह मानना सही ना होगा कि कबीर की वाणी में विद्वानों के प्रति विद्रोह है उनकी संपूर्ण लड़ाईया विद्रोह समाज में व्याप्त ऊंच-नीच की भावना पाखंडवाद आदि पर था’
इसीलिए कबीर कहते हैं कि
‘ कांकर पाथर जोड़ के मस्जिद लई बनाय,
ताजा चढ़ी मुल्ला बांघ दे क्या बहरा हुआ खुदाय।’

लोगों के मस्तिष्क में ही समाज के लिए अलग-अलग विचार हैं छोटा बड़ा बड़ा तो ऐसे मानते जैसे भगवान और भक्त इससे भी ज्यादा राजा और प्रजा इस बात पर थोड़ा विचार यदि कहीं हो रहा था तो वह है निर्गुण संतों की वाणी तुलसी सगुण सगुण के उपासक थे यह बात ठीक है कि उन्हें राम प्रिय थे राम प्रिय थे पर समाज भी उनका मुद्दा था पर केंद्र में तो सिर्फ राम थे उदाहरण के लिए
‘तू ब्राह्मण! हौं कासी का जुलाहा,
चीन्ह न मोर तू गियाना।।’

वस्तुतः कबीर के काल और उनके व्यक्तित्व के सम्यक विश्लेषण के क्रम में सोचने विचारने पर अनायास ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की निम्न पंक्तियां सामने आ जाती हैं द्विवेदी जी ने इन पंक्तियों के माध्यम से कबीर के काल और उनके व्यक्तित्व का सम्यक विश्लेषण कर दिया है ‘ सहयोग से ऐसे युग संधि संधि के समय उत्पन्न हुए थे जिसे हम विवेक धर्म साधना और मनोभावों का चौराहा कह सकते हैं उन्हें सौभाग्य बस सहयोग भी अच्छा मिला था कितने प्रकार के संस्कार पढ़ने के रास्ते हैं वे प्राय सभी उनके लिए बंद थे वे मुसलमान होकर भी असल में मुसलमान नहीं थे बे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे वो योगी होकर भी योगी नहीं थे वह कुछ भगवान की ओर से ही सबसे न्यारे बनाकर भेजे गए थे

जाति को लेकर संत कवियों ने आंदोलन चलाया इसका स्वरूप अखिल भारतीय था कहीं पर किसी पर भी समस्या देखी उन संतों ने ने अपनी बात कह डाली समाज की विसंगति उनकी विसंगति बनकर उभरी यह जो भी थे अपने समाज की ही देन थी कबीर ने अपने समय की परिस्थितियों को केंद्र में रखकर लिखा जो समाज में व्याप्त तथा सत्य था उसको अपनी वाणी में व्यंग्यार्थ रूप से प्रस्तुत किया कबीर अपने समय मैं इतने प्रचलित हुए के प्रचलित हुए के उनके पद हर व्यक्ति की जुबां जुबां हर व्यक्ति की जुबां जुबां पर उतराते हैं। और इसमें भी कोई दुविधा नहीं है कि कवि राज राज भी समाज में उतने ही प्रचलित हैं उनकी लोकप्रियता समाज में व्याप्त देखी जा सकती है इसी को केंद्र में रख डॉक्टर रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि
‘कबीर की रचना में जितने रंग हैं अक्खड़ समाज चेतना का, कहुक्तिकार का, एकदम भावविभोर होकर आत्मसमर्पण का, गहरी रहस्य चेतना का प्रेम के तन्मय भावों का और पूरी पूरी पूरी संश्लिष्ट और पूरी पूरी पूरी का और पूरी पूरी पूरी संश्लिष्ट भावों का और पूरी पूरी पूरी संश्लिष्ट और पूरी पूरी पूरी का और पूरी पूरी पूरी संश्लिष्ट और पूरी पूरी संश्लिष्ट इतना वैविध्य कम रचनाकारों में मिलेगा।

कबीर की विचारधारा का सबसे क्रांतिकारी मुद्दा मुद्दा मुद्दा उनका निर्गुण राम है उन्होंने निर्गुण राम की भक्ति का उपदेश दिया है और राम नाम के जप को इस भक्ति का साधन बताया है उन्होंने बड़ी साफ शब्दावली में कहा है कि तीनों लोगों में जिस दशरथ राम का बखान किया जाता है राम नाम का मर्म का मर्म उससे भिन्न है
‘दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना,
राम नाम का मर्म न जाना।।

कबीर को राम नाम रामानंद जी से प्राप्त हुआ लेकिन कबीर के राम रामानंद रामानंद के राम से भिन्न हैं। कबीर के राम धनुर्धर साकार राम नहीं वर्ल्ड के ब्रह्म ब्रह्म के पर्याय हैं रामानंद की परंपरा में रहकर भी कबीर ने अपने आपको कुछ लगा लिया था था लिया था था आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में-
‘उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके पंत खड़ा किया किया खड़ा किया।’

लेकिन कबीर का निर्गुण पंथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद जैसा रहस्यवाद जैसा ही नहीं है वह उससे किंचित भिन्न है यद्यपि भक्ति का मूल तत्व राग है जो दोनों में उपस्थित है परंतु सूफियों के निर्गुणवाद से भिन्न ही है। डॉ. बच्चन सिंह के अनुसार-
‘ कबीर का ब्रह्म न वेद वर्णित ईश्वर है, न कुरान वर्णित खुदा। वह इन दोनों से न्यारा है है वह निर्गुण की लोक बद्धता से अलग है। निर्गुण संबंधी सारी शास्त्रोक्त शब्दावली ग्रहण करते हुए भी वह शास्त्रोक्त हो जाता है।’

परंतु कबीर के ब्रह्मवाद को लेकर बराबर आक्षेप लगाए जाते रहे कि उन्होंने राम को दशरथसुत राम से भिन्न माना है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल की धरना भी कुछ यही रही-
‘ कबीरदास कभी तो अद्वैत की और झुकते दिखाई देते हैं और कभी एकेश्वरवाद की ओर, कभी वे पौराणिक सगुणभाव से भगवान को पुकारते हैं और कभी निर्गुणभाव से असल में उनका कोई तात्विक सिद्धांत नहीं।’

समाज सुधारक और मानव कल्याण की भावना से प्रेरित होकर कबीर ने काव्य की रचना की और उसे अपना अस्त्र बनाया। हिंसा के लिए वे मुसलमानों को बराबर फटकारते रहे।
‘दिन भर रोज रहत हैं, रति में हनन हैं गाय।
यह तो खून बंदगी, कैसी खुसी खुदाय।।
अपनी देखि करत नहीं अहमक, कहत हमारे बडन किए।
उनका खून तुम्हारी गरदन, जिन तुमको उपदेश किया।।’

कबीर ने जीवन भर धार्मिक पाखंड, ब्रह्माडम्बरों का विरोध किया, अवतारवाद का खंडन, पुस्तकीय ज्ञान का खंडन, हिंसा, कुसंगति, कपट और द्वेष की निंदा की तथा सदाचार और राम रहीम की एकता पर बल दिया उन्होंने सम्पूर्ण समाज को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयास किया उन्होंने कहा-
‘दुइ जगदीश कहाँ ते आया, कहु कौने भरमाया।’

उन्हें कोई भी शास्त्र मान्य नहीं है जो आत्मज्ञान को कुंठित करता है। वेद-कितेब भ्रमोत्पादक है अतः अस्वीकार है, तीर्थ, व्रत, पूजा, नमाज, रोजा गुमराह करते हैं इसलिए अग्राह्य हैं। पंडित-पांडे, काजी-मुल्ला उन धर्मों के ठेकेदार हैं जो धर्म नहीं हैं अतः घृणास्पद हैं। डॉ रामस्वरूप चतुर्वेदी के शब्दों में-
‘अपने कृतित्व को समाज में मिलाकर और अपने व्यक्तित्व को रचना से अभिन्न करके वे सच्चे अर्थों में सुकवि बनते हैं, जिनके ऊपर जन्म-मरण के नियमों का असर नहीं होता, कबीर इसी कोटि के रचनाकार हैं।’

कबीर की रचनाओं में समाज का यथार्थ रूप प्रस्तुत हुआ है। उन्होंने अत्यंत साहस और निर्भीकता के साथ समाज में प्रचलित सभी विषमताओं पर कठोर प्रहार किया है जिनसे मानव समाज उस समय अपनी वर्गगत और सांप्रदायिक सीमाओं एवं कुंठाओं से छिन्न-भिन्न हो रहा था। इस कारण कबीर ने हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया तथा सभी को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयास भी किया। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी इस विषय में कहते हैं-
‘समाज सुधार की भावना या हिंदू मुस्लिम की एकता कबीर के लिए एक प्रमुख वस्तु थी जिसे उन्होंने अपनी काव्य संवेदना में ढाला और काव्य बनकर ही उनके संदर्भ में वह स्पृहणीय है।’

कबीर एक ऐसे धर्म की स्थापना करना चाहते थे जिसमें ना कोई हिंदू हो न मुसलमान, न कोई मौलवी हो न कोई पुरोहित, न कोई शेख, ब्राह्मण सब मनुष्य हों। इसी को डॉ. बच्चन सिंह न इन शब्दों में कहा है-
‘यह कहना कि वे समाज सुधरक थे, गलत है। यह कहना कि वे धर्म सुधारक थे और भी गलत है। यदि सुधारक थे तो रैडिकल सुधारक। वे धर्म के माध्यम से समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना चाहते थे। वे कोई पंथ खड़ा करने के पक्षपाती नहीं थे।’

हकीकत में कबीर एक लड़ाई लड़ रहे थे, अपने लिए नहीं दी जनों के लिए। उनके समय में एक ओर सामंतगण, पंडे, मुल्ले अपने स्वार्थ के लिए लड़ रहे थे तो कबीर निम्न वर्ग के लिए। उनके शूर का आदर्श था-
‘ सूरा सो पहचानिए लरै दीन के हेत,
पुरजा-पुरजा कटि मरै कबहुँ न छांड़ें खेत।’

अर्थात उन्होंने ऐसे धर्म का आख्यान किया जो विश्व धर्म है जो देश काल निरपेक्ष है, जो समस्त मानव समाज के सदाचरण का प्रतीक है। ऐसा करके कबीर ने समस्त जनता को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया इसलिए डॉक्टर रामकुमार वर्मा ने उन्हें राष्ट्रीय एकता का सूत्रधार कहा है।-
‘ राजनीति, धर्म और समाज की सीमाओं से ऊपर उठकर मानवता के जिस सत्य से राष्ट्र का निर्माण हो सकता है उसकी घोषणा संत कबीर ने की इसलिए उन्हें राष्ट्रीय एकता का सूत्रधार कहना युक्तिसंगत है।’

सबसे अधिक कबीर ने बल मूर्ति पूजा के विरोध में दिया है उन्होंने मूर्तिपूजा का खंडन कर मन में ही ईश्वर का वास बताया-
‘पाहन पूजें हरि मिलें तो मैं पूजूं पहार,
घर की चाकी कोई न पूजै, पीसि खाए संसार।’

कबीर ने रूढ़ियों, बाह्याडम्बरों का सतत विरोध किया है। रोजा, नमाज, छापा, तिलक, माला, गंगास्नान, और तीर्थाटन आदि का मुख्य रुप से भी विरोध किया। डॉ. बच्चन सिंह ने भी कहा-
‘उनसे बड़ा मूर्ति भंजक (आइकनोक्लाष्ट) इतिहास में दूसरा नहीं है।’

कबीर व्यवहारवादी व्यक्ति थे अतः किसी भी व्यक्ति, वस्तु, आस्था और विश्वास की सबसे बड़ी कसौटी वे व्यवहार को मानते थे। कथनी की अपेक्षा करनी और रहनी का मूल उनकी दृष्टि में अधिक है-
‘जैसी मुख तै निकसै तैसी चालै नाहीं,
मानुष नहीं तै स्वान गति बांधै जमपुर जाहिं।’

व्यक्ति स्तर पर मनुष्य की परीक्षा उसकी रहनी से होती है और सामाजिक स्तर पर करनी से इसीलिए उन्होंने पुस्तकीय विद्या का खंडन किया। क्योंकि वह व्यक्ति को कर्मक्षेत्र से हटाकर निष्क्रिय चिंतन में संलग्न करती है। कवि शास्त्रज्ञान पर नहीं आचरण की शुद्धता पर बल देते हैं।-
‘तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी, मैं कहता सुरझावन हारि तू राखा उरझाय रे।’

कबीर निर्भीक, उदार, सत्यवादी, अहिंसा के पुजारी बाह्याडम्बर विरोधी, क्रांतिकारी, मानवता के पक्षधर और समाज सुधारक थे। वे तत्कालीन शासक सिकंदर लोधी के आगे नहीं झुके, कटर हिंदू-मुसलमान ना उन्हें खरीद सके ना तोड़ सके कबीर ने अपने युग में धर्म पंथियों की टकराहट देखी अतः सच्चे संत साहित्यकार का फर्ज निभाते हुए उन्होंने अपने काव्य में हिंदू-मुस्लिम एकता का स्वर उठाया। उन्होंने हिंदू-मुसलमानों के बाह्याडम्बरों की निंदा करते हुए निराकारोपासक और मानवता पर बल दिया। उनकी दृष्टि में कीड़ी और कुंजर में भेद न था तो वे हिंदू-मुस्लिम, ब्राह्मण-शूद्र आदि में भेद कैसे स्वीकार करते। अतः भेदभाव को बदलने के लिए उन्होंने भक्ति का आलंबन लिया। वे कहते हैं-
‘जाति पाति पूछै नहीं कोई,
हरि कौं भजै सो हरि को होई।’

कबीर का व्यक्तित्व मस्तमौला था जो कुछ कहते थे साफ-साफ कहते थे, यद्यपि पढ़े लिखे न थे पर अनुभव के धनी थे डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनकी विशेषता बताते हुए कहा-
‘ उनके प्रेम और भक्ति में वह गलदश्रु भावुकता नहीं थी जो जरा सी आंच से ही पिघल जाए। उनका मन प्रेमरूपी मदिरा से मतवाला था वह ज्ञान के महुए और गुड़ से बनी थी इसीलिए अंधश्रद्धा, भावुकता और हिस्टीरिक प्रेमोन्माद का उसमें एकांत अभाव था। सिर से पैर तक वे मस्तमौला थे, बेपरवाह, दृण, उग्र।’

कबीर की भाषा को लेकर भी अनेक मत प्रचलित हैं आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उनकी भाषा को साधुक्कड़ी भाषा कहा है तो श्याम सुंदर दास पंचमहल खिचडी कहते हैं और इन सबसे अलग हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें वाणी का डिक्टेटर कहा है। परंतु कबीर की विचारधारा का सबसे पुराना और निष्पक्ष मूल्यांकन तो नाभादास ने अपने भक्तमाल में किया है-
‘कबीर कानी राखी नहीं वर्णाश्रम शटदरसनी,
भक्ति बिमुख जो धरम ताहि अधरम करि गायो।
जोग जग्य ब्रत दान भजनबिनु तुच्छ दिखायो,
हिन्दू तुरक प्रमान रमैनी सबद राखी।।
पच्छपात नहिं बचन सबहिं के हित की भाखी,
आरुढ़ दसा है जगत पर मुखदेखी नाहिन भनी।
कबीर कानि राखी नहीं वर्णाश्रम षटदर्शनी।।’

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