बड़े घनत्व की छोटी-छोटी कविताएँ : विजय कुमार मिश्र (Vijay Kumar Mishra)

बड़े घनत्व की छोटी-छोटी कविताएँ : विजय कुमार मिश्र (Vijay Kumar Mishra) साहित्य जन मंथन

कवि – राकेश मिश्र (Rakesh Mishra)
समीक्षक – डॉ. विजय कुमार मिश्र (Vijay Kumar Mishra)

वैज्ञानिक शोधों और निष्कर्षों के आधार पर यह स्पष्ट है कि यह संसार ऊर्जा की ही क्रीड़ा है। भयानक विस्फोट से जिन तारों की उत्पत्ति हुई उन्हीं तारों के बीच ठंडे हो गए छोटे-छोटे तारों में ही कहीं जलती हुई एक धरती भी थी, जो ब्रह्माण्ड के विराट रूप में एक कण के समान है। 2012 में स्वीटजरलैंड स्थित यूरोपियन सेंटर फॉर न्यूक्लीयर रिसर्च के वैज्ञानिकों ने यह घोषणा की कि उन्होंने ईश्वरीय कण (गॉड पार्टिकल) को ढूंढ लिया है। इस वैज्ञानिक तथ्य के आलोक में देखें तो इस सृष्टि का आधार तत्त्व वह कण ही है। साहित्य के क्षेत्र में जीवन को सुख दुःख की धारा मानने के क्रम में यह भी माना गया कि हमारा गुण और अवगुण उस धूल कण की तरह है जो कभी ऊपर तो कभी नीचे दिखाई देता है। सृष्टि के उस कण के तौर पर कहें या जीवन की क्षणभंगुरता के क्षण के तौर पर, आलोच्य काव्य संग्रह ‘ज़िन्दगी एक कण है’ उन्हीं सब सन्दर्भों का रचनात्मक और परिष्कृत आयाम है।

एक कवि के रूप में राकेश मिश्र दो तीन वर्ष पहले हिंदी कविता के क्षेत्र में बड़ी तेजी से उभर कर सामने आए, जब एक के बाद एक उनके तीन काव्य संग्रह ‘चलते रहे रात भर’, अटक गई नींद’ और फिर ‘ज़िन्दगी एक कण है’ की कविताओं से हिंदी कविता के पाठकों का परिचय हुआ। इससे पहले 2002 में उनका पहला काव्य संग्रह ‘शब्दगात’ भी प्रकाशित हो चुका था। इसका मतलब यह है कि संग्रह भले ही एक लम्बे अंतराल के बाद प्रकाशित हुआ हो किन्तु उनके लेखन का सिलसिला बदस्तूर जारी था। उनका सबसे नया प्रकाशित काव्य संग्रह ‘ज़िन्दगी एक कण है’ में छोटी-छोटी कुल एक सौ तेरह कविताएँ संकलित हैं, जिसका व्याप बहुत बड़ा है। इस संग्रह की कविताओं में रिश्ते, प्रेम और चाहत के रंग हैं, गाँव और शहर की खाईयाँ हैं। सपने, साँसें और हँसी की मौजूदगी है तो बचपन, माँ और यादें भी हैं। सावन, बरसात और वसंत है तो रात, नींद और मृत्यु भी अपनी अलग-अलग छायाओं के साथ उपस्थित है। समय की चाल, चाहत के जंगल, सूर्य की आँख, यादों की किताब जैसे विविध आयामों को समेटती हुई उनके इस संग्रह की कविताएँ बहुरंगी और अलग-अलग प्रभाव छोड़ने वाली हैं। प्रकृति, प्रेम, संघर्ष और मनुष्यता तथा उससे बनता-बुनता परिवेश ही राकेश मिश्र की कविताओं का मूल आधार है, बाकी चीजें इस संबंध में कवि की धारणाओं को पुष्ट करने वाली तंतुओं के रूप में ही देखी-मानी जा सकती हैं। उनकी कविताओं से जीवन और कविता संबंधी उनके दृष्टिकोण को समझा जा सकता है। ज़िन्दगी, उसका आकर्षण, उसके लक्ष्य को अभिव्यक्त करती ये काव्य पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं –

चमकदार आकर्षणों से
गुँथी है
ज़िन्दगी
क्योंकि तुम्हारी ही तरह
आकर्षक है
हर असंभव लक्ष्य।

(लक्ष्य, पृष्ठ 25)

असंभव लक्ष्य को पाने का आकर्षण भीतर से मजबूत व्यक्ति ही समझ सकता है और राकेश मिश्र की कविताओं से ऐसा लगता है कि वे इस आकर्षण को, उसके महत्व को भलीभांति समझते हैं। दरअसल समकालीन हिंदी कविता में जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसकी जनपक्षधरता, उसकी जीवनधर्मिता, उसके मूल्य और शिल्प के प्रति पूरी तरह से सचेत राकेश मिश्र की कविताएँ अपने दौर की बेहतरीन कविताओं की पंक्ति में खड़ी तो हैं ही किन्तु कई बार उससे अलग किसी नई लीक और लोक से सम्बद्ध भी दिखाई देती हैं। जीवन स्थितियों के चित्रण और उसकी मार्मिक अभिव्यक्ति के लिए जिन शब्दों और प्रतीकों का चयन राकेश मिश्र करते हुए दिखाई देते हैं वे बेहद अनूठे हैं और आत्मीयता तथा अंतरंगता के सर्वथा अनुकूल हैं। यह अनायास नहीं है कि उनकी अनेकानेक कविताएँ आत्मीय भावबोध और अंतरंगता से युक्त हैं। ‘मौन’ शीर्षक कविता में उनके इस विशिष्ट रंग को देखा जा सकता है –

एक मैदानी नदी हैं
उसकी आँखें
हाहाकार कर उठती हैं
बादलों को देख
अन्यथा
मौन कलरव है
रेतीले तटों पट।

(मौन, पृष्ठ 46)

उनकी कविताओं में नदी, तरणताल, सागर लहरें, फूल, हवा, जंगल, बरसात, बादल, पत्ते जैसे न जाने कितने-कितने प्रकृति के उपादान सहज ही आ जाते हैं और उनकी सहायता से छोटे-छोटे दृश्यों, बिम्बों के जरिए कई बड़े परिदृश्य रचते हुए, मनुष्य को प्रकृति से जोड़ते हुए कवि आगे बढ़ जाते हैं।

नंगे तारों से गुँथे तरणताल
तैरती हैं
चेतनाएँ
टहनियों के सहारे।

(तरणताल, पृष्ठ 36)

इसी तरह से सावन के प्रभाव और कवि मन की आर्द्रता को व्यक्त करती हुई उनकी काव्य पंक्तियों को देखा जा सकता है –

इस सावन में
एक घर बना रहा हूँ
मैं भीगता
दीवालें बरसती
थरथराती ज़मीन
नमी में डूबी हुई।
(सावन, पृष्ठ 79)

राकेश मिश्र की कविताओं का तल मनुष्यता से सीधे सीधे सम्बद्ध है। संवेदना उनकी कविताओं से झांकती हुई ही नहीं है बल्कि स्थितियों को भलीभाँति आंकती हुई दिखाई देती है। उनकी लगभग सभी कविताओं में सरलता के साथ ही एक विशिष्ट तरलता का दर्शन किया जा सकता है। उसकी वह सरलता और तरलता भाव ही नहीं भाषा और शिल्प में भी अंतर्भुक्त है। एक बहाव, एक गति, एक अंतर्लय उनकी कविताओं में सहज ही सुलभ है। उनकी ‘बूँद’ शीर्षक कविता को ही देखिए –

तुम रहते हो तो
दो बूँद नमी ले आती है
हवा
तुम रहते हो तो
आम कि महक से सराबोर हो जाती है
दिशा
तुम रहते हो तो
जीवन के पास रहती है
दया।
(बूँद, पृष्ठ 59)

कवि ने अपनी कविताओं में उन अनुभवों को, उन अनुभूतियों को बड़ी ही शिद्दत के साथ समेटने का काम किया है जो उनके जीवन का हिस्सा रहा है। जीवन के छोटे छोटे पलों को, छोटे-छोटे क्षणों को जिसकी जद में ज़िन्दगी जीते हुए कवि यह मानने लगा है कि ज़िन्दगी एक कण है और प्रकारांतर से यह कहना चाहता है कि हमें उन जीवन कणों को बड़ी ही जिन्दादिली के साथ जीना चाहिए। कवि राकेश मिश्र ने अपने उन समस्त अनुभवों को, उन सभी अनुभूतियों को जो उनके मन को छूती रही हैं और जिसका विस्तार और प्रसार मनुष्यता की, मानवीय संवेदनाओं की प्रतिष्ठा में सहायक है, उन सभी अनुभव कणों को अपनी काव्यवस्तु का आधार बनाया है और बेहद खूबसूरती के साथ उसका रचनात्मक उपयोग किया है। कवि अपने आसपास घटने वाली किसी छोटी सी घटना को भी बड़े घनत्व के साथ काव्यात्मक रुप देते हुए छोटे आकार की बड़ी कविता में ढाल देते हैं। उनकी इन छोटी कविताओं को पढ़कर कई बार ऐसा लगता है कि लेखक ने काफी कुछ कहा तो है किन्तु कुछ-कुछ अनकहा भी रह गया है। इन कही अनकही कविताओं में इसकी आकारगत लघुता से एक अच्छी बात यह हुई है कि इसमें स्फीति नहीं है और भाव की स्वतः स्फूर्तता से भावों की गहनता बनी रही। उनकी कविताएँ स्वतः सद्यः भावों का सहज उच्छलन ही हैं। ‘साँसें’ शीर्षक उनकी कविता को ही देखिए –

डॉक्टरों की हड़ताल देखकर
मैंने सोचा
क्यों न हो जाए
एक हड़ताल साँसों की
सामूहिक
आखिर क्या कम जुर्म सह रही है
साँस।
(साँसें, पृष्ठ 84)

कवि ने अपने आसपास की उन घटनाओं से जो उनके सामने घटती हुई दिखाई देती हैं अपने अनुभव जगत को काफी समृद्ध किया और फिर उन घटनाओं की संवेदना के बारीक रेशे के सहारे अपनी कविता को बुनने का काम किया है। वे रेशे एक दूसरे से इस तरह से गुँथे हुए दिखाई देते हैं कि कहीं कोई उलझन नहीं, कहीं कोई गाँठ नहीं, एक कुशल कारीगर की तरह सब कुछ सफाई के साथ किया गया जान पड़ता है। इतना आकर्षक कि कविता का ग्राहक उसे अपना बना लेने को आतुर हो उठता है। अपनी सरलतम भावनाओं को सहजता के साथ अभिव्यक्त करने में कुशल राकेश मिश्र समकालीन कविता के क्षेत्र में अपनी मजबूत उपस्थिति का आभास दिलाते हैं। उनकी कविताएँ पाठक से बतियाती हुई-सी लगती हैं, वह भी अत्यंत ही आत्मीयता के साथ। ‘तेरे-मेरे’ शीर्षक उनकी कविता में निहित आत्मीयता के भाव को ही देखिए –

तेरे-मेरे
दृष्टि बिंदु से बंधी अरगनी पर
फैली है
सारी सृष्टि
ऐंठती जाती है
मुझे
परत-दर-परत
तुम्हारी घूमती दृष्टि
सरलता है
तुम्हारी बेल-बूटी छाँव की
मेरी नीची दृष्टि बिंदु पर
एक बार देखो
मेरी ओर
सृष्टि के पार
दृष्टि
सहज जिऊँ
मैं।
(तेरे-मेरे, पृष्ठ 53)

राकेश मिश्र की कविताओं में संवेदनाओं के छोर असीम हैं। उनकी अनेक कविताओं में भावुकता और भावनाओं के सहज अतिरेक को भी महसूसा जा सकता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उनकी कविताओं में कोरी भावुकता ही है। अपने युग की विडंबनाओं को समेटने की दृष्टि से भी उनकी कविताएँ कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। कई बार अनेक प्रश्नों को जन्म देती हुई उनकी कविताएँ, मानसिक उथल-पुथल का परिदृश्य रचती उनकी कविताएँ, बौद्धिकता और विमर्शों की गहनता से भी संपृक्त दिखाई देती हैं। यह बात अवश्य है कि उनकी बौद्धिक कविताओं का स्वर भी सरसता और उदारता से संयत और संयुक्त है। अपने समय और समाज के सरोकार के प्रति पूरी तरह से सजग राकेश मिश्र की कविताओं की सोद्देश्यता भी काबिले गौर है। उनकी कविताओं में अनहद के साथ-साथ जिंदगी की जद्दोजहद को भी पर्याप्त स्थान मिला है। यथा –

कितने-कितने
जवाब देता रहता हूँ
कितने-कितने
जिंदगी एक प्रश्नोत्तर बन गई है
कितना दिया मौन अनवरत हिसाब
सावधानियों का
परीक्षाओं का
असफलताओं का भी।
(जवाब, पृष्ठ 34)

ज़िन्दगी की कठिनाई, उसकी व्यावहारिकता, उसकी जटिलता सब कुछ कवि की संवेदना के दायरे में है। उनकी कविताओं में जगह-जगह ज़िन्दगी से जुड़े ऐसे जरुरी पहलुओं को समेटने का काम हुआ है –

थोड़ी से नींद
ढेरों सपने…ज़िन्दगी
थोड़ी सी जिद
ढेरों समझौते…ज़िन्दगी
थोड़ी सी सफलता
ढेरों इम्तिहान…ज़िन्दगी
थोड़े से वादे
ढेरों बहाने…ज़िन्दगी
थोड़ी सी ग़लती
ढेरों ताने…ज़िन्दगी।
(ज़िन्दगी, पृष्ठ 109)

राकेश मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद में हुआ था और उनका बचपन ग्रामीण परिवेश में बीता। बचपन की सुंदरतम अनुभूतियों, आम के बगीचे, पोखर, साप्ताहिक बाजार, नाशपाती, जलेबी, पकौड़े आदि का अक्सर जिक्र करने वाले कवि ने इन सब चीजों से जुड़ी अपनी स्मृतियों को बार बार कविता में अभिव्यक्त किया है। बचपन की स्मृतियाँ दीर्घकालिक प्रभाव की क्षमता से युक्त होती हैं । कहना न होगा कि राकेश मिश्र की कविताओं में भी गाँव, ग्रामीण जनपद और उससे जुड़ी संवेदनाओं और सांस्कृतिक व्यवहार एवं प्रतीकों की स्वाभाविक मौजूदगी है। गाँव से जुड़ी उनकी कविताओं में उनकी भावनाएँ उमड़ती हुई दिखाई देती हैं। बदलते हुए ग्रामीण परिवेश और उसके शहरीकरण की प्रवृत्ति उन्हें चिंतित करती है। गाँव में हो रहे बदलाव से उपजी कवि की चिंता को व्यक्त करती उनकी कविताओं में देखा जा सकता है –

गाँव में पानी साफ़ था
गाँव में सड़क नहीं थी तब
गाँव में सड़क है
गाँव में पानी साफ़ नहीं है अब
गाँव में जब पानी साफ़ होगा
गाँव में जब सड़क बनेगी
तब मैं डरता हूँ
कहीं गाँव ही नहीं रहे।
(गाँव, पृष्ठ 118)

शहर केंद्रित विकास की अवधारणा और उसके मॉडल ने गाँव के स्वरुप को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है। लोग रोजी-रोटी की तलाश में शहर-दर-शहर भटकते रहते हैं। गाँव के लोगों का पलायन और प्रवास इस दौर की बड़ी समस्याओं में हैं। इसकी एक गहरी झलक हमें कोरोना काल में प्रवास की पीड़ा के रूप में देखने को मिली। कवि इस बात से चिंतित है कि गाँव की मिट्टी, उसके सुगंध, उसकी महक से दूर ये लोग अजनबी शहर में जैसे तैसे अपनी ज़िन्दगी घिसट रहे हैं और उनका गाँव उनसे छूटता जा रहा है। कवि लोगों से यह गुहार लगाता है कि वे गाँव छोड़कर शहर की ओर न जाए। अपने गाँव में उसे जो कुछ भी नसीब है वह भी उसे शहर में नहीं मिलने वाला है। वहाँ अजनबीपन है, संवेदनहीनता है। कवि लिखते हैं –

नए शहर में दोस्त तुम्हारा कौन बनेगा इतनी जल्दी
घर न छोड़ो गाँव ना छोड़ो दिल मत तोड़ो इतनी जल्दी
गाँव के रस्ते धूल भरे हैं पर तेरे पैरों पड़ते हैं
राह न छोड़ो यूँ मत दौड़ो मुँह मत मोड़ो इतनी जल्दी
(नया शहर, पृष्ठ 92)

ग्रामीण समाज की मधुरता, उसकी सरसता, उसकी समरसता और संबंधों की प्रगाढ़ता कवि के मन और हृदय में भीतर तक धँसा हुआ है। कवि गाँव की प्रकृति, उसकी महक, रिश्तों की गर्माहट, अपनापन को याद करते हुए लिखता है –

गाँव में पीपल महुआ बरगद अमवा नीम कहानी कहते
नए शहर में तेरी कहानी कौन कहेगा इतनी जल्दी
गाँव में भौजी चाची ताई सब तेरी बलिहारी लेते
नए शहर में तेरा पड़ोसी कौन बनेगा इतनी जल्दी
(नया शहर, पृष्ठ 92)

गाँव का लोक रंग, उसका तीज त्यौहार, उसकी उत्सवधर्मिता इन सब चीजों का कवि पर गहरा प्रभाव है। उन्होंने अपनी अनेक कविताओं के माध्यम से लोक रंग के रस से पाठकों को परिचित कराया है। होली की मस्ती और उसकी रंगीनियत को अभिव्यक्त करती उनकी कविताओं की निम्न पंक्तियाँ इस दृष्टि से विशेष है –

कोरी चुनरिया मारे क्यूँ ताना
पागल हुआ है बैरी ज़माना ।
कसती ही जाती है मादक उमंग
कितनी घुली है जीवन में भंग ।
आओ सुघर करें अब अंग अंग
चटकीले हो जाएं होली के रंग।
(वैरी ज़माना, पृष्ठ 91)

राकेश मिश्र की कविताओं में प्रेम के जो अलग अलग शेड्स उभर कर आए हैं उसके बीज भी ग्रामीण परिवेश में बीते बचपन और किशोर मन की उर्वर जमीन में ही पड़ गए थे, जो आगे चलकर पुष्पित-पल्लवित हुए। प्रेम के साथ ही उनके जीवन में उदासी और अवसाद का क्षण और कण भी रहा है किन्तु इस सबसे बाहर निकलने की तरकीब भी उन्होंने खुद विकसित की। साहित्य और लेखन के साथ ही संगीत की ओर उनका झुकाव रहा, संगीत तो जीवन की आपाधापी में शायद उस तरह से विकसित नहीं हो पाया जिस तरह से हो सकता था किन्तु इस वृत्ति और प्रवृत्ति ने उन्हें संयत, सुसंगत बने रहने में बड़ी सहायता की जिसका असर उनकी कविताओं में भी देखा जा सकता है। जीवन के संघर्ष, प्रकृति, प्रेम आदि को समेटती उनकी कविताओं का विषय वैविध्य उनके जीवन अनुभवों के वैविध्य से ही उपजा हुआ जान पड़ता है। बचपन का ग्रामीण परिवेश और उससे होते हुए लम्बे प्रशासनिक अनुभव ने उन्हें एक परिपक्व मनुष्य और कवि के रूप में विकसित किया। जीवन के छोटे छोटे क्षणों और कणों की गहराई को पकड़ सकने की क्षमता से संपन्न बनाया। उनकी प्रेमपरक कविताओं की सुगंध पूरे संग्रह में फ़ैली हुई दिखाई देती है। इसका रंग इतना गाढ़ा है कि जहाँ नहीं भी दिखाई देती है वहाँ भी वह किसी न किसी सतह पर अपनी गंध से पाठकों को सराबोर करती रहती है। राकेश मिश्र के भीतर की करुणा, उनकी उदारता, उनकी संवेदनशीलता प्रेम के अलग-अलग रूपों में प्रकट होती रहती हैं और उसका वह प्राकट्य इतना उदात्त होता है कि कई बार पाठक उसे निर्गुण रूप में पाकर भी धन्य होता चलता है। उनकी कविता की यह महक विशेष है –

तुमको
तुम्हारी बातों को
हमने
हमारी बातों ने
समझ लिया
तुमको
तुम्हारी साँसों को
हमने
हमारी सांसों ने
महक लिया ।
(साँसें, पृष्ठ 62)

कवि की प्रेम संबंधी उदात्तता, उसका पवित्र आह्वान सब कुछ उनके इस संग्रह की कविताओं में मौजूद है। ‘पवित्र आह्वान’ शीर्षक उनकी कविता इस संदर्भ में द्रष्टव्य है –

दो शंख
तुम्हारी आँखें
निकलकर जिनसे
एक पवित्र आह्वान
मेरे अंतस की रक्तसारता को
धवल बना देता है।
(पवित्र आह्वान, पृष्ठ 61)

इसी भाव रंग की उनकी कविता है ‘होंठ’ जहाँ उसका वर्णन अत्यंत ही मर्यादित ढंग से हुआ है। प्रेमिका की आँखों और होठों का वर्णन जिन प्रतीकों में हुआ है वह कवि की प्रेम संबंधी धारणाओं की पवित्रता का बोध कराने के लिए पर्याप्त सूत्र देता है। चार पंक्तियों की इस कविता में प्रेम की गहन अभिव्यक्ति हुई है –

दो मृत कलश हैं
तुम्हारी आँखों में
छलकते होठों के द्वार पर
सब अमृत दृश्य तेरे।
(होंठ, पृष्ठ 56)

प्रेम और प्रकृति से संयुक्त उनकी कविताओं की बहुतायता के मध्य एक बड़ा पक्ष इस संग्रह का है, इसमें मनुष्य के संघर्ष से जुड़ी कविताओं का होना। जीवन के प्रति आस्था कवि की चेतना को गढ़ने में निर्णायक भूमिका निभाती है। जीवन की जद्दोजहद के बीच, उसकी विडंबनाओं और विद्रूपताओं के मध्य, उसकी तमाम असंगतियों और विसंगतियों के बावजूद जीवन को वे सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उदासी, निराशा, अवसाद, हताशा के माहौल में भी ज़िन्दगी को जीने की अनेक वजहें हैं और हम उन वजहों के सहारे ज़िन्दगी को न केवल जी सकते हैं बल्कि उसे बेहद खूबसूरत बना सकते हैं। कवि लिखते हैं –

जीना है उसके लिए
जिससे ज़िन्दगी अच्छी लगती है
जीना है
उसके लिए भी जिस बिन
ज़िन्दगी नहीं है।
(जीना है, पृष्ठ 19)

जीवन में हम सुकून देने वाली हर उस चीज की तलाश में भटकते रहते हैं जो हमें सुकून देने की जगह बेचैन करती है। हम उसे प्राप्त करने की जिद में ढेरों समझौते करते चले जाते हैं जिसे पाने के बाद हमें तृप्ति नहीं मिलती बल्कि हमारी प्यास एवं भूख और बढ़ती जाती है। ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि हम खुद को आत्मकेंद्रित कर लेते हैं। जीवन के बड़े लक्ष्य के लिए, बड़े उद्देश्य के लिए खुद को तैयार नहीं करते बल्कि बड़ी-बड़ी चीजें और उसका आकर्षण हमें जिस तरह से तैयार करती जाती है, हम उसके तय ढाँचे और साँचे में ढलते चले जाते हैं। इस स्थिति की अपनी उलझनें हैं, इसकी अपनी त्रासदी है। यदि हम अपनी सोद्देश्यता को ठीक से समझ सकें, नियमित कर सकें तो जीवन की बहुत सारी पीड़ाओं से सहज ही छुटकारा मिल सकता है। हमारी पीड़ा दूसरों की पीड़ा में विलीन हो सकती है। अगर ऐसा होता है तो हमारा ध्येय, हमारा लक्ष्य सब बदल जाता है। हम जीवन के सत्व और तत्व की ओर उन्मुख होने लगते हैं। हमारी तलाश, हमारी मंजिल सब नए सिरे से निर्धारित होने लगती है और हमारे पाँव भी उसी दिशा में चल पड़ते हैं। कवि ने अपने जीवन के लक्ष्य और तलाश की ओर इंगित करते हुए लिखा है –

मेरी तलाश
वो जड़
जिसे जमीन न मिली
मेरी मंजिल
वो जमीन
जो जड़विहीन है।
(मेरी तलाश, पृष्ठ 22)

समाज के अंतिम पायदान पर खड़े मनुष्य की पीड़ा से अपनी पीड़ा को जोड़ लेना बहुत मुश्किल नहीं तो सर्वथा आसान भी नहीं। मरती हुई संवेदनाओं के इस दौर में तो बिल्कुल ही नहीं जिसका मूल्य ही मुनाफा है, अपना हित है। किसी गरीब को भूख से बिलबिलाता देख कर आप भी अगर व्याकुल हो जाते हों तो समझिए कि सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है। आपके भीतर का मनुष्य अभी तक जिंदा है, वरना सच मानिए आपके इर्द गिर्द लाशों से निर्मित परिवेश ही है जिसे आप भ्रमवश जीवित समझ बैठे हैं। राकेश मिश्र की कविताएँ और उसमें अभिव्यक्त होती उनके हृदय की तरलता, उसकी सरलता उन्हें जीवित संवेदनाओं वाले मनुष्य के रूप में हमारे सामने उपस्थित करती हैं। वे गरीबों की भूख से जुड़े बिम्बों के माध्यम से हमारी चेतना का विस्तार करते हैं –

एक गरीब की भूख जैसी है
तुम्हारी चाह
जी तोड़ कोशिशें दिन-रात फिर भी
विद्युत्वती है
चेतना ध्रुवों में।
(तुम्हारी चाह, पृष्ठ 57)

समकालीन व्यवस्था कि खामियाँ, उसका विभ्रम, नेतृत्व की असफलता और उसके विविध आयाम भी राकेश मिश्र की दृष्टि से ओझल नहीं हैं। यह सच है कि उनकी कविताएँ सीधे-सीधे राजनीतिक नहीं हैं किन्तु उनकी राजनीतिक चेतना कुछ कविताओं में मुखरता के साथ उभर कर सामने आई है। राजनीतिक रूप से सक्रिय समूहों और नेतृत्व की सोच के दिवालिएपन को सामने रखती हुई उनकी कविता ‘मैं नेता हूँ’ में इसे देखा जा सकता है –

मैं नेता हूँ
उनका
जो कुछ करना नहीं चाहते
मैं नेता हूँ
उनका
नहीं मानते कि कुछ करना है।

हमारा भविष्य कैसा हो, इस सम्बन्ध में राजनीतिक नेतृत्व की अदूरदर्शिता परेशान करने वाली है। समाज में सद्भाव का अभाव, चारों ओर फैला अंधकार, धुंध ही धुंध से बनता एक अजीबोगरीब वातावरण यह सब कुछ कवि राकेश मिश्र की चिंता और चिंतन की परिधि में है। दिग्भ्रमित नेतृत्व की दिशा और दशा पर कवि लिखता है –

हम लड़ रहे हैं
अपनी तकदीरों से
काट डाले हाथ
विध्वंसित स्नायुतंत्र
बिखरी व्यूह रचना
दिग्भ्रमित नेतृत्व
हम चल रहे हैं
अंधियारों में।
(लड़ रहे हैं हम, पृष्ठ 71)

बड़ी-बड़ी बातें, बड़ी-बड़ी स्थापनाएं, बड़े-बड़े लोग यह सब हमारे परिदृश्य में विचरते रहते हैं। बड़े होने का भाव वस्तुतः वह नहीं होता जो सामान्यतः लोग मानते हैं। बड़े होते हैं लोग अपने बड़प्पन से। बड़े बड़ाई न करे की तर्ज पर यह उसके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग होता है। आज बड़े होने से ज्यादा बड़े दिखने की होड़ दिखाई पड़ती है। हर वह यत्न किया जाता है जिससे वह बड़ा दिख सके, हर वह कोशिश की जाती है जिससे समाज में लोग उसे बड़ा माने। बड़े दिखने और बड़े होने के इस विरोधाभास को कवि ने अपनी कविता में बड़ी ही सहजता के साथ अभिव्यक्त किया है –

बड़ा होना
चलना है
रास्तों पर
बड़ा होना
बदलना है
रास्तों को
बड़ा होना
बताना भी है
उनको
जो
कभी नहीं चले।
(बड़ा होना, पृष्ठ 40)

राकेश मिश्र जी की अधिकांश कविताएँ अपने शिल्प में छंदमुक्त ही हैं किन्तु इस संग्रह में कुछ ऐसी कविताएँ भी हैं, जो लयात्मक हैं। इस संग्रह के कुछ मुक्तक और ग़ज़लों से कवि के शिल्पगत सामर्थ्य का पता चलता है। यथा –

अपनी तकदीर के मारे हैं किधर जाएँगे
हर तरफ से न पुकारो बिखर जाएँगे।
ऐ हवाओं तुम्हें बहना है रुख तो ले लो
हम दो राहों पे खड़े हैं भटक जाएँगे।
(तक़दीर, पृष्ठ 89)

माँ के प्रति जो अगाध श्रद्धा का भाव उनके इस संग्रह की महत्वपूर्ण कविता ‘माँ’ में अभिव्यक्त हुआ है वह अनुपम है। अपनी हँसी, अपनी खुशी, अपनी मुस्कराहट, अपने सपने सबको माँ से सम्बद्ध करते हुए कवि ने जिस तरह से माँ के प्रति अगाध श्रद्धा का भाव व्यक्त किया है वह इस रिश्ते की दिव्यता को अभिव्यक्त करने की दृष्टि से बेहद उत्कृष्ट है। इस कविता में कवि का भावबोध अपने शिखर पर है।

माँ, तुम
मेरे खारे मटमैले आँसुओं में खिंची
साफ़ तस्वीर हो
मेरी स्वप्निल मुस्कुराहटों की
एक मात्र दर्शक
मेरे सपनों ने भेजी हैं
जितनी भी चिट्ठियाँ
उन सबका पता हो तुम
माँ !
(माँ, पृष्ठ 32)

इसी तरह राकेश मिश्र के इस संग्रह की एक महत्वपूर्ण कविता है ‘जीवन एक कण’ है जिसने इस पुस्तक को उसका नाम दिया। समतल और गहराई के साथ ही सरल और मुश्किल के विरोधाभास को जीवन के विरोधाभास से अनुस्यूत करती हुई यह कविता अपनी प्रस्तुति और बुनावट में बेहद सरल किन्तु भावों की गहनता की दृष्टि से खास है।

ज़िन्दगी
एक कण है
उपयोग सरल
समझ मुश्किल है
एक अनंत खोज है
समतल गहराईयों की।
(ज़िन्दगी एक कण है, पृष्ठ 43)

राकेश मिश्र की कविताओं और उनके इस संग्रह के सबंध में ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो कही जा सकती है, ऐसे बहुत से बिंदु हैं जिसको विस्तार से रखा जा सकता है। उनकी कविताओं के शेड्स, उसके कोण, उसका व्याप, उसका घनत्व, उसकी मार्मिकता, उसका वैविध्य, उसकी तरलता और सरलता सब कुछ बड़े फलक का है। इस लेख में, उनकी कविताओं के सम्बन्ध में मैंने जो कुछ भी लिखा है वह उस फलक की झलक भर है। कवि ने स्वयं अपने संग्रह का अंत ‘आधी बातें’ शीर्षक कविता से ही किया है और प्रकारांतर से यह माना है कि मनुष्य पूरा नहीं होता, उसका अनुभव भी पूरा नहीं होता, उसकी कविता भी स्थिति को पूरी तरह से बयाँ कर सकने की क्षमता से युक्त नहीं होती।

तुम्हीं ने रखी होगी
आधी यादें
आधा स्नेह
आधी रातें
आधी सुबह
आधी बातें
और
पूरी ज़िन्दगी।
(आधी बातें, पृष्ठ 127)

हमारी पूरी ज़िन्दगी में बहुत कुछ आधा अधूरा होता है। कविता भी, कवि भी, पाठक भी और आलोचक तो होता ही है जो पूरा न कहकर आधा ही कहता है अक्सर। कभी थोड़ा कम और कभी थोड़ा ज्यादा। बहरहाल जो भी शेष रह गया है वह कवि के अगले संग्रह में हो इसकी अपेक्षा है और शायद जब उस संग्रह के संबंध में कुछ लिखने का अवसर आएगा तो आधे से कुछ ज्यादा कह सकूँगा, लिख सकूँगा। फिलहाल राकेश मिश्र के इस संग्रह की अंतिम कविता ‘आधी बातें’ से ही अपनी बात को भी विराम देता हूँ। हिंदी के पाठक से यह आह्वान करता हूँ कि राकेश मिश्र की कविताओं को पढ़ें, वाकई इन कविताओं से गुजरना ज़िन्दगी से गुजरना है, उसके छोटे-छोटे क्षण से, छोटे छोटे कण से गुजरना है।

बड़े घनत्व की छोटी-छोटी कविताएँ : विजय कुमार मिश्र (Vijay Kumar Mishra) साहित्य जन मंथन

डॉ. विजय कुमार मिश्र
सहायक प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग
हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
मो. 8920116822, 8585956742
ई-मेल : vijaymishra@hrc.du.ac.in

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