जी-मेल एक्सप्रेस | G-Male Express | अलका सिन्हा | डॉ. विजय कुमार मिश्र | साहित्य जनमंथन |

जी-मेल एक्सप्रेस | G-Male Express | अलका सिन्हा | डॉ. विजय कुमार मिश्र | साहित्य जनमंथन | साहित्य जन मंथन

उपन्यास ‘जी-मेल एक्सप्रेस’ (G-Male Express) अपने कथन और शिल्प में अनूठा है और यह पाठकों को चौंकाता है। यह अपने शीर्षक के अनुरूप किसी तकनीकी विषय पर आधारित न होकर यौनाचार, युवाओं की महत्वाकांक्षा और उसके भटकते मन के साथ ही उनके द्वारा किए जाने वाले समझौतों के कारण उपजी परिस्थिति से बनी फांस पर आधारित है और लेखिका ने उसके विभिन्न आयामों को बड़ी ही बारीकी के साथ प्रस्तुत किया है।

पुरुष वेश्यावृत्ति और यौनाचार पर केन्द्रित विशिष्ट
समकालीन उपन्यास ‘जी-मेल एक्सप्रेस’

हिंदी संसार में सुपरिचित कथाकार-कवयित्री अलका सिन्हा का हाल में प्रकाशित उपन्यास ‘जी-मेल एक्सप्रेस’ पिछले दिनों समीक्षकों-आलोचकों के द्वारा काफी सराहा गया है। अपने इस पहले उपन्यास के लिए सृजनलोक कृति सम्मान से सम्मानित अलका जी की इससे पहले छह और पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें कविता संग्रहों में ‘काल की कोख से’, ‘मैं ही तो हूँ ये’, ‘तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ’; कहानी–संग्रहों में ‘सुरक्षित पंखों की उड़ान’, ‘मुझसे कैसा नेह’ तथा नेशनल बुक ट्रस्ट की नवसाक्षर साहित्यमाला के अंतर्गत प्रकाशित कहानी पुस्तक ‘खाली कुरसी’ शामिल हैं।


प्रेम, परिवार, प्रकृति और प्रयोगधर्मिता से युक्त उनकी समस्त रचनाएं उन्हें विशिष्ट बनाती हैं। अलका जी ने अपनी रचनाओं में सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं को बेहद संजीदगी के साथ सामने रखते हुए समाज की रूचि के परिष्कार का निरंतर प्रयास किया है। उनका उपन्यास ‘जी-मेल एक्सप्रेस’ अपने कथन और शिल्प में अनूठा है और यह पाठकों को चौंकाता है। यह अपने शीर्षक के अनुरूप किसी तकनीकी विषय पर आधारित न होकर यौनाचार, युवाओं की महत्वाकांक्षा और उसके भटकते मन के साथ ही उनके द्वारा किए जाने वाले समझौतों के कारण उपजी परिस्थिति से बनी फांस पर आधारित है और लेखिका ने उसके विभिन्न आयामों को बड़ी ही बारीकी के साथ प्रस्तुत किया है।
ऐसा उन्होंने अनेक शोधपरक तर्कों और तथ्यों के सहारे एक विशिष्ट कुतूहल और कथा कौशल के साथ किया है। इस उपन्यास में पुरुष वेश्याओं की निर्मिति और उसके मकरजाल से उबरने की छटपटाहट को लेखिका ने बड़े ही साहस और संयम के साथ सामने लाया है। उन्होंने उन विषयों पर खुली चर्चा की है जिन पर बात करने से लोग या तो कतराते हैं या फिर छिपकर और खुद को छिपाकर बात करते हुए दिखाई देते हैं। उन्होंने शोषण को जेंडर आधारित सीमा से बड़ी ही मजबूती के साथ बाहर लाने का कार्य किया है। अलका जी ने अपने उपन्यास के आरंभ में ही लिखा है –
“मगर आज के समय में पुरुषों को कोई दलील रखने का हक़ कहाँ है? वे तो स्त्री-विद्रोही, स्त्री-शोषक हैं। उनसे कैसी सहानुभूति? कभी-कभी मन होता है कि पुरुष-विमर्श पर भी कुछ लिखा जाना चाहिए, उनकी चिंताएं, उनका दबाव, उनका शोषण। स्त्रियों के लिए तो न जाने कितनी सरकारी-गैर सरकारी संस्थाएं लपककर खड़ी हो जाती हैं मगर हमारे लिए कौन खड़ा होगा? जरा ना-नुकुर की नहीं कि स्त्रियाँ विमर्श का झंडा लेकर खड़ी हो गईं।”
स्त्री विमर्श की समकालीन बयार के बीच पुरुषों की पीड़ा को सामने रखते हुए इस प्रकार के विमर्शों के जेंडर बायस्ड होने की प्रवृत्ति पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करने वाला यह उपन्यास एक नई जमीन तैयार करता हुआ दिखाई देता है। आज की नई जीवनशैली और स्त्रियों की तथाकथित उन्मुक्त उड़ान के बीच इस ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है कि किस प्रकार ऊंचे ओहदों पर बैठी स्त्रियाँ पुरुषों का भी उसी तरह शोषण कर रही हैं जिस तरह पुरुष स्त्रियों का करते हैं। दफ्तर के माहौल के जरिए लेखिका ने इसे बताने का सफल प्रयास किया है। यहाँ उसकी एक बानगी देखी जा सकती है –
“इंटर्न लड़कियाँ यह सोचकर धमेजा को पटाती रहती हैं कि क्या पता वह उनकी स्थायी नियुक्ति में मदद कर दे। धमेजा की चलती भी बहुत है। वह हर किसी से बनाकर रखता है और अपनी बात मनवाने में तो वह माहिर है। इसी लालच में ये लड़कियाँ अपनी मोहक अदाओं से ऐसे धमेजाओं को रिझाने में लगी रहती हैं। मजे की बात तो यह है कि धमेजा भी इन बातों को खूब समझता है और मौके का फायदा उठाने से नहीं चूकता। लड़कियाँ बात-बात पे उसे गिफ्ट देती हैं, लिफ्ट देती हैं और समझती हैं कि वह दाना चुग रहा है।”


इस उपन्यास में यौन शोषण के व्यापक पक्ष को सामने रखा गया है। इसका व्याप इस विषय पर लिखी गयी पहले की पुस्तकों से कहीं अधिक बड़ा है, कहीं अधिक प्रभावशाली है। बेटे-बेटियों के एक जैसे यौन स्वभाव को अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में देखने की मानसिकता और आने वाले समय के संकटों के प्रति आगाह करने वाला यह उपन्यास पति-पत्नी के संबंधों में आने वाली शिथिलता और इसे दूर करने के लिए, इसमें ताजगी बनाए रखने के कुछ सहज समाधानों की ओर भी इशारा करता है। लेखिका ने स्त्रियों की यौन पिपासा और इससे उपजे सवालों से बचने की जगह उसका सामना किया है और कई बड़े और जरूरी प्रश्न उपस्थित किया है। मसलन –
“एक लंबी चुप्पी के बाद स्त्रियों ने अपनी प्यास को पहचाना है और वे इसकी तृप्ति चाहती हैं तो क्या यह अनैतिक है? अग्नि परीक्षाएं या लक्ष्मण रेखाएं हमेशा सीता के लिए ही क्यों तैयार की जाती हैं? दैहिक सुख की कामना करने वाली स्त्रियां बदचलन और आवारा क्यों समझी जाती हैं?”
अपने इस उपन्यास में अलका जी ने बेहद अनछुए और दुरूह विषय को अत्यंत ही संयमित भाषा से साधने का काम किया है। कथाकार के साथ ही उनके कवयित्री होने का लाभ भी इस उपन्यास को मिला है और नितांत एकांत के क्षणों को, संभोग के चित्रण को काव्यात्मक काया प्रदान कर लेखिका ने न केवल मर्यादा की रक्षा की है बल्कि इससे उसका प्रभाव और गहन हो गया है। इस सम्बन्ध में वरिष्ठ लेखक आदरणीय राम दरश मिश्र जी का यह कथन महत्त्वपूर्ण है –
“अलका के पास उम्दा गद्य है। इस उपन्यास में भी उस गद्य की छवि दिखाई पड़ती है। कथा को कथा से जोड़ने में, मार्मिक स्थलों के विधान के लिए काव्यात्मकता का प्रयोग करने में अलका का गद्य विविध रूप धारण करता है। नर-नारी के दैहिक संबंधों को, उनकी यौन क्रियाओं को गंदे या फूहड़ रूप में नहीं उभारा गया है, बल्कि यह अलका की काव्यात्मक सांकेतिकता का ही कमाल है जिससे यह चित्रण बहुत ही सौम्य ढंग से उभर कर आया है।“


बहरहाल, अपने उपन्यास के मूल कथ्य तक पहुँचने के लिए लेखिका इसका एक परिदृश्य खड़ा करती हुई आज के दौर में कार्यालयों में व्याप्त विसंगतियों का बेहद सजीव चित्रण करती हैं। धमेजा ऑफिस के एक ठेठ चरित्र के रूप में सामने आता है। ‘यौन-संबंधों’ में आए बिखराव के बीच देवेन और विनीता के दाम्पत्य जीवन का सौन्दर्य बेहद उल्लास और उमंग पैदा करने वाला है। उनके संबंधों के सौंदर्य के माध्यम से दांपत्य जीवन के मूलाधारों को उभारने में लेखिका को पर्याप्त सफ़लता मिली है। अंततः ये सारी चीजें मूल कथ्य में अंतर्भुक्त हो जाती हैं और शिल्प की विशिष्टता यह कि ऐसा मालूम पड़ता है मानो जैसे ये सारे एक दूसरे में अंतर्ग्रंथित हों।
पुरुष वेश्यावृति और यौन इच्छाओं के उभार से उपजी परिस्थिति पर केन्द्रित इस उपन्यास में लेखिका ने मुख्य कथा सूत्र को शुरू से अंत तक बखूबी पकड़े रखा। लेकिन अपने रचना शिल्प में एक बात से दूसरी बात को सहजता से निकालने में माहिर लेखिका ने समकालीन जीवन की बहुत सारी विसंगतियों और विद्रूपताओं को भी जगह-जगह पर उद्घाटित किया है। आधुनिक जीवन शैली में यौन व्यवहार के बदलते मानदंड के साथ ही दूसरे कई पहलुओं की ओर भी उन्होंने ध्यान खींचा है। इस क्रम में दिल्ली की जीवन शैली पर तंज कसते हुए लेखिका लिखती हैं –
“हड़बड़ी तो दिल्ली की फितरत में शुमार है। यहाँ के लोग देर रात तक टीवी देखेंगे, देर से सोएंगे, उठेंगे देर से, देर तक कमोड पर बैठकर अखबार पढ़ेंगे, मगर सड़क पर उतरते ही पता नहीं कैसी रेस में शामिल हो जाते हैं। मुझे बड़ी कोफ़्त होती है, दिल्ली की इस हड़बड़ाहट से।”


इस उपन्यास में कई जगह लेखिका के चिंतनशील व्यक्तित्व के साथ ही शब्दों की बारीकियों पर उनकी पकड़ भी देखने को मिलती है। लेखिका भीतर की कशमकश को अभिव्यक्त करते हुए एकांत और अकेलेपन के अंतर को बड़ी ही सहजता से सामने रख देती हैं –
“कितने नजदीकी शब्द हैं – एकांत और अकेलापन, पर कितनी अलग-अलग फितरत है दोनों की। एकांत में ठहराव है, कुछ हद तक संतुष्टि भी, जबकि अकेलेपन में बेचैनी है, खालीपन का अहसास है।”
बाजार के बढ़ते प्रभाव और उपभोक्तावादी संस्कृति के इस युग में हमारे मानस पर खासकर आज के युवकों और युवतियों पर विज्ञापन के असर को भी इस उपन्यास के विषय से सम्बद्ध करते हुए लेखिका ने बड़ी खूबसूरती के साथ चित्रित किया है। युवाओं की उन्मुक्त यौन इच्छाओं के कारणों की ओर इशारा करते हुए लेखिका लिखती हैं –
“बच्चों को सही-गलत की शिक्षा देने के बदले, माँ-बाप अंजाम से बचने की तैयारी करने लगे हैं। यानी अनचाहा गर्भ न ठहरे, बस। बाकी चाहे कुछ भी होता रहे, कितनी भी बार, किसी के भी साथ। आजकल टीवी पर प्रचार भी तो इसी प्रकार के दिखाए जाने लगे हैं। कॉन्ट्रासेप्टिव्स का प्रचार अब परिवार-नियोजन के तौर पर नहीं बल्कि सावधानी के तौर पर किया जाता है, इसीलिए नई उम्र की लड़कियाँ इस ओर और तरह से ध्यान देने लगी हैं।”
गर्भ निरोधक गोलियों के बेजा इस्तेमाल और उससे पैदा होने वाली स्वास्थ्यजनित समस्याएँ, इन्टरनेट पर उपलब्ध यौन उत्तेजनाओं से सम्बंधित वीडियो और फिल्मों तथा उसके उपयोग से यौन संबंधी व्यवहार में आने वाले बदलाव, अर्ली मैच्यूरिटी, बहुत कुछ पाने की ललक और कम उम्र में बड़े आवेग के साथ ‘चरमोत्कर्ष’ तक जाने की कामना जैसे विविध पक्षों को समेटती हुई लेखिका समकालीन समस्याओं के साथ ही उनके कारणों और निदान को भी सामने रखती हैं।
बढ़ती यौन इच्छाओं से बनते समाज में इसका एक बड़ा बाजार हमारे इर्द-गिर्द किस तरह खड़ा हुआ जा रहा है और इससे अनभिज्ञ हो हम कैसे अपने परिवेश की वास्तविक स्थिति से परिचित नहीं हो पाते हैं, लेखिका ने इसे भी बताने का कार्य किया है। जिगोलो के रूप में काम वासना की तुष्टि का जो नया बाजार पिछले दशकों में खड़ा हुआ है, वह कम चिंताजनक नहीं है। पूर्णिमा के फार्महाउस सहित कई ठिकानों पर पड़े छापे के सन्दर्भ में धमेजा के द्वारा किया गया रहस्योद्घाटन चौंकाने वाला है।
“किस बारे में बात कर रहे हो यार, जरा खोलकर बताओ न।”
आखिर मेरी बेचैनी से उसका मन पसीजा और वह असल मुद्दे पर आया।
“उसके हाईटेक पार्लरों में बॉडी-स्पा के नाम पर जिगोलो का धंधा चलता था…”
“जिगोलो?”
“कीमत लेकर स्त्रियों की कामवासना को संतुष्ट करने वाले लड़के जिगोलो कहलाते हैं। मेल प्रॉस्टिट्यूट! धमेजा अपनी कुर्सी को दाएं बाएं घुमा रहा था।”

लेखिका ने बदलते हुए समय में गर्भपात जैसी समस्याओं को बड़ी ही संवेदना के साथ प्रस्तुत किया है –
“समय भी तो कितना बदल गया है। अब चारित्रिक दृढ़ता जैसी संकल्पनाएँ मायने नहीं रखतीं। किसी क्लिनिक में अविवाहित लड़की का गर्भपात कराना हैरानी या शर्मिन्दगी से नहीं, बल्कि इतनी सहजता से देखा जाता है जैसे आप कील-मुंहासों का इलाज करवाने आए हों, चाहे बार-बार आएं, इसमें शर्म कैसी?”


आज के परिवेश में मीडिया की भूमिका और उसकी कम होती विश्वसनीयता से हम सब परिचित हैं। सनसनी पैदा करने की सनक और न्यूज़ ब्रेक करने की हड़बड़ाहट ने मीडिया को कहाँ से कहाँ लाकर खड़ा कर दिया है, यह सर्वविदित है और सार्वजनिक बहसों के केंद्र में है। स्थिति ऐसी हो गयी है कि हम एक-एक कर चैनल बदलते चले जाते हैं और काम की चीज कहीं नहीं दिखाई देती है। लेखिका ने इन सारी चीजों को सामने रखते हुए मीडिया में व्याप्त अतिरेक और भाषाई कदाचार को भी उघाड़ने का काम किया है। शब्दों का चयन सही ढंग से न होने पर कैसे अर्थ का अनर्थ हो जाता है, इसको भी उन्होंने बखूबी सामने रखा है।
“किसी और चैनल पर कोई धुरंधर ऐसी स्त्रियों की मानसिकता के प्रति अपनी-अपनी उदारतापूर्ण राय दे रहा था। उसके मंतव्य का सार समझाते हुए एंकर स्पष्ट कर रही थी कि ऐसी अधिकांश महिलाओं के भीतर उनके पति अथवा प्रेमियों द्वारा उपेक्षित रखे जाने की तड़प उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित करती है।
मुझे कोफ़्त होती है, कैसी भाषा इस्तेमाल करते हैं मीडिया वाले! प्रेरित शब्द तो किसी ‘नेक’ काम के लिए किया जाता है, ऐसे कामों के लिए तो ‘बढ़ावा’ शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। दरअसल, बात शब्द की नहीं है, बदलते समय की बदलती भाषिक संरचनाओं की है। … मीडिया को ही ले लो, इनका उद्देश्य इस घटना के प्रति लोगों को जागरूक करना नहीं, सनसनी फैलाना है। देखते नहीं, कैसे एक ही सांस में सारी घटना बयान कर देना चाहते हैं कि कहीं उनसे पहले कोई दूसरा चैनल न उसे बोल दे। घटना से जुड़ी कोई क्लिपिंग्स दिखाते हैं तो दस बार ‘इक्सक्लूसिव’ की मोहर पीटते हैं। खबर से बड़ा तो इस बात का दावा होता है कि इस तरह की जानकारी देने वाला उनका ही पहला और एकमात्र चैनल है।”


कथ्य के साथ ही अपने शिल्प की दृष्टि से भी यह उपन्यास बेहद आकर्षक और अनूठा है। इस उपन्यास की कथा निर्मति में डायरी की ख़ास भूमिका है। कंप्यूटर के जरिए डायरी को एक वैज्ञानिक स्वरूप दिया गया है जिसकी सांकेतिकता धीरे-धीरे खुलती जाती है और आसपास के लोगों से जुड़ती जाती है।
इसके साथ ही युवाओं के मन में देशभक्ति की प्रबल भावना को ‘अभिषेक’ के असामान्य चित्त और उसमें लीन सुखोई के माध्यम से सामने लाया गया है। इसमें आधुनिक जीवन शैली की कई नई चीजों का निदर्शन हुआ है। लेखिका कभी शॉपिंग की नई शैली तो कभी डिजिटल क्रांति के प्रभाव से पाठकों को परिचित कराती हैं।
बदलते समय का सीटी स्कैन करता यह उपन्यास ऐसे कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर एक ख़ास आलोचना दृष्टि के साथ बहस और विश्लेषण की मांग करता है। पुरुष वेश्या को पहली बार रूपायित करने वाला यह उपन्यास ‘जी-मेल एक्सप्रेस’ समकालीन हिंदी उपन्यासों में खास स्थान रखता है। इस उपन्यास का कथ्य और कथा शिल्प का वैशिष्ट्य अलका सिन्हा को अपने समकालीन उपन्यासकारों के मध्य खास बनाता है।

पुस्तक का नाम – जी-मेल एक्सप्रेस
कुल पृष्ठ – 176
पुस्तक मूल्य – 300/- रु.
प्रकाशक – किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली

जी-मेल एक्सप्रेस | G-Male Express | अलका सिन्हा | डॉ. विजय कुमार मिश्र | साहित्य जनमंथन | साहित्य जन मंथन

डॉ. विजय कुमार मिश्र

सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हंसराज कॉलेज

मो. – 8585956742

ई-मेल – vijayvijaymishra@gmail.com

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• दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में सहायक प्रोफेसर के रूप में कार्यरत डॉ. विजय कुमार मिश्र साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों और लेखन से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं.
• आपने संसदीय कार्य मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा आयोजित ‘युवा संसद’ में राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम पुरस्कार प्राप्त करने के साथ ही कॉलेज के दिनों में वाद-विवाद एवं भाषण प्रतियोगिताओं में सैकड़ों पुरस्कार प्राप्त किए हैं.
• हाल ही में ‘हिंदी साहित्य और सिनेमा : रूपांतरण के आयाम’ नामक आपकी पुस्तक प्रकाशित हुई है.
• आपने पांच वर्षों तक त्रैमासिक पत्रिका ‘सामायिक मीमांसा’ का सम्पादन भी किया है.
• इसके साथ ही अनेक संगोष्ठियों एवं सम्मेलनों में आपने महत्त्वपूर्ण वक्तव्य भी दिए हैं.
• इस समय आप ‘साहित्य संस्कृति फाउंडेशन’ के अध्यक्ष के रूप में साहित्य और संस्कृति के उन्नयन में अपना विशेष योगदान दे रहे हैं.

सेंटर फॉर जेंडर स्टडीज तथा पाटलिपुत्र हिस्टोरिकल सोसाइटी,पटना तथा जीएलएम कॉलेज (पूर्णिया विश्वविद्यालय) द्वारा डायनेमिक टीचर अवार्ड, पंडित तिलक राज शर्मा स्मृति न्यास, न्यूयॉर्क द्वारा तिलक राज शर्मा स्मृति सम्मान, बिटिया फाउंडेशन द्वारा सृष्टि रक्षक सम्मान आदि से सम्मानित।

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