उत्तर – पूर्वी भारत के आदिवासी

उत्तर – पूर्वी भारत के आदिवासी साहित्य जन मंथन


हिंदी साहित्य की जड़े जितनी मजबूत हैं उतनी गहरी भी। आज हिंदी साहित्य देश में ही नहीं विदेशों में भी लिखा और पढ़ा जा रहा है इसके प्रचार प्रसार के लिए हमारे हिंदी साहित्य के लेखक अहम भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं उन्ही लेखकों में एक हैं वीरेंद्र परमार सर जिनकी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘उत्तर – पूर्वी भारत के आदिवासी‘ है। यह पुस्तक उत्तर पूर्वी भारत के आदिवासियों को केंद्रित करती हुई चलती है।
आइए पढ़ते हैं पुस्तक की कहानी लेखक की जुबानी…

भूमिका


भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र बांग्लादेश, भूटान, चीन, म्यांमार और तिब्बत – पाँच देशों की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर अवस्थित है। असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम – इन आठ राज्यों से बना समूह पूर्वोत्तर कहलाता है। यह क्षेत्र भौगोलिक, पौराणिक, ऐतिहासिक एवं सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में 400 समुदायों के लोग रहते हैं और लगभग 220 भाषाएँ बोलते हैं। पूर्वोत्तर की अधिकांश भाषाओं के पास अपनी कोई लिपि नहीं है, लेकिन लोककंठों में विद्यमान लोकसाहित्य अत्यंत समृद्ध और बहुआयामी है I संस्कृति, भाषा, परंपरा, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार, वेश-भूषा आदि की दृष्टि से यह क्षेत्र इतना वैविध्यपूर्ण है कि इस क्षेत्र को भारत की सांस्कृतिक प्रयोगशाला कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा। सैकड़ों आदिवासी समूह और उनकी अनेक उपजातियाँ, असंख्य भाषाएँ, भिन्न-भिन्न प्रकार के रहन-सहन, खान-पान और परिधान, अपने-अपने ईश्वरीय प्रतीक, धर्म और अध्यात्म की अलग-अलग संकल्पनाएँ इत्यादि के कारण यह क्षेत्र अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। वन और वन्य प्राणियों, जीव- जंतुओं की असंख्य दुर्लभ प्रजातियों, वनस्पतियों एवं पुष्पों की अनेक प्रजातियों, औषधीय पेड़-पौधों के आधिक्य के कारण पूर्वोत्तर क्षेत्र को वनस्पति विज्ञानियों, पुष्पविज्ञानियों व जंतुविज्ञानियों के लिए स्वर्ग कहा जाता है। पर्वतमालाएं, सदाबहार वन एवं सदानीरा नदियां इस क्षेत्र के नैसर्गिक सौन्दर्य में अभिवृद्धि करती हैं। जैव विविधता, सांस्कृतिक कौमार्य, सामुहिकता बोध, प्रकृति प्रेम, अपनी परंपरा के प्रति सहज अनुराग आदि इस क्षेत्र की अप्रतिम विशेषताएँ हैं। अनेक उच्छृंखल नदियों, जल प्रपातों, तालाबों से अभिसिंचित पूर्वोत्तर की शस्य – श्यामला धरती का अभी तक अपेक्षित विकास नहीं हो सका है । पूर्वोत्तर के राज्यों की सभी राजधानियाँ रेल और वायुमार्ग से अभी तक नहीं जुड़ सकी हैं। पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे ने सभी राजधानियों को रेल नेटवर्क से जोड़ने का लक्ष्य निर्धारित किया है और इस दिशा में तेजी से कार्य भी हो रहे हैं I अरुणाचल की राजधानी ईटानगर, त्रिपुरा की राजधानी अगरतला, असम की बराक घाटी का प्रमुख शहर सिलचर आदि रेल नेटवर्क से जुड़ चुके हैं I पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे ने मिजोरम की राजधानी आइजोल, मणिपुर की राजधानी इम्फाल और मेघालय की राजधानी शिलांग को यथाशीघ्र रेल नेटवर्क से जोड़ने का लक्ष्य निर्धारित किया है I पूर्वोत्तर के शहर गुवाहाटी, इंफाल, अगरतला, सिलचर, आइजोल, शिलोंग, तेजपुर, जोरहाट, डिब्रूगढ़, दीमापुर, गंगटोक आदि वायु सेवा से जुड़ चुके हैं I यदि पूर्वोत्तर के अन्य शहरों को भी वायु सेवा से जोड़ दिया जाए तो पर्यटन को अत्यधिक प्रोत्साहन मिलेगा I पूर्वोत्तर में पर्यटन के विकास की अपार संभावनाएं हैं I यदि आवागमन के साधनों का उचित विकास किया जाए और प्राथमिकता के आधार पर पर्याप्त संख्या में होटलों – अतिथिगृहों का निर्माण किया जाए तो पर्यटन इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का मजबूत आधार साबित हो सकता हैI


पूर्वोत्तर में आदिवासियों की सर्वाधिक आबादी है। आदिवासी समुदाय सूर्य, चन्द्रमा, नदी, पर्वत, पृथ्वी, झील, जल प्रपात, तारे, वन इत्यादि की पारंपरिक विधि से पूजा करते हैं। जिन आदिवासी समुदायों ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया है वे भी प्रकृति की पूजा करते हैं। ईसाई धर्म अपनाने के बावजूद इन लोगों ने अपने मूल रीति – रिवाजों का परित्याग नहीं किया है। वे चर्च में भी जाते हैं और अपने पारंपरिक विधि – निषेधों का भी पालन करते हैं। प्रकृतिपूजक (animistic) जनजातियाँ देवी -देवताओं को प्रसन्न करने के लिए पशु – पक्षियों की बलि चढ़ाती हैं। इनकी धारणा है कि कुछ अदृश्य शक्तियाँ सृष्टि का संचालन करती हैं, सुख – समृद्धि देती हैं तथा क्रोधित होने पर हानि भी पहुँचाती हैं। यहाँ दो प्रकार की दैवी शक्तियों की अवधारणा है – हितकारी देवी-देवता और अनिष्टकारी देवी-देवता। यदि समय और परिस्थिति के अनुसार इन देवी- देवताओं की पूजा की जाए और बलि देकर उनको संतुष्ट किया जाए तो मनुष्य का जीवन सुखी रहता है। पूर्वोत्तर में बौद्ध धर्म की जड़ें भी बहुत गहरी हैं I पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में छिटपुट रूप से बौद्ध धर्मावलंबी लोग रहते हैं लेकिन अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और सिक्किम में इस धर्म को माननेवाले लोगों की संख्या सर्वाधिक है I अरुणाचल प्रदेश के के मोंपा, खाम्‍ती, खंबा, मेंबा, सिंहफो, शेरदुक्‍पेन और जखरिंग समुदाय बौद्ध धर्म को मानते हैं I यहाँ बौद्ध धर्म की हीनयान और महायान दोनों शाखाओं को माननेवाले लोग रहते हैं I भगवान बुद्ध के उपदेशों के प्रति वे लोग गहरी श्रद्धा रखते हैं I ये आदिवासी बौद्ध धर्मावलम्बी भगवान बुद्ध को अनेक नामों से संबोधित करते हैं । पूर्वोत्तर के अनेक आदिवासी समुदाय हिन्दू धर्म में आस्था रखते हैं । इस क्षेत्र में हिन्दू धर्म की तीनों शाखाओं – शैव, वैष्णव और शाक्त के उपासक विद्यमान हैं। शिव पूर्वोत्तर के सभी समुदायों के सर्वमान्य देवता हैं। आदिवासी और गैर आदिवासी सभी समुदायों में शिव की पूजा की जाती है तथा शिव को भिन्न-भिन्न नामों से संबोधित किया जाता है। असम के बोड़ो कछारी के सर्वोच्च ईश्वर शिव हैं जिन्हें ‘बाथो बरई’ अथवा ‘खोरिया बरई महाराजा’ कहा जाता है। देवरी समुदाय के भी प्रमुख भगवान शिव-पार्वती हैं। ये लोग शिव-पार्वती को ‘कुंडी’ और ‘मामा’ नाम से पुकारते हैं। ‘गिरा -गिरासी’ भी शिव-पार्वती के नाम हैं। दिमासा कछारी समुदाय के भी सर्वोच्च ईश्वर शिव हैं जिन्हें ‘शिबराई’ कहा जाता है। किसी भी आयोजन में सर्वप्रथम शिव की पूजा की जाती है I इस समुदाय का विश्वास है कि यदि विधिवत शिबराई की पूजा – अर्चना की जाए तो सुख वैभव आता है, परिवार के सदस्य स्वस्थ रहते हैं एवं दुष्ट शक्तियों का शमन होता है I चावल, मक्का, बाजरा, मांस, मछली एवं जंगली कंद-मूल पूर्वोत्तर के आदिवासी समाज का मुख्य भोजन है। प्रायः सभी लोग मांसाहारी होते हैं। सब्जियों को तेल-मसाले में भूनने का रिवाज नहीं है, उबालकर और उसमें नमक, मिर्च डालकर उनका उपयोग किया जाता है। मदिरा इनके भोजन का प्रमुख घटक है। सभी सामाजिक और धार्मिक आयोजनों में मदिरा पीना-पिलाना अनिवार्य है। मदिरा के बिना तो किसी उत्सव की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। यह चावल, मक्के या बाजरे से बनती है। स्थानीय भाषा में इसके अलग – अलग नाम हैं । पूर्वोत्तर के अधिकांश आदिवासी समुदायों में वधू मूल्य की परंपरा विद्यमान है I वधू मूल्य का भुगतान कभी नकद तो कभी मिथुन या सूअर के रूप में किया जाता है। इन आदिवासी समुदायों का मुख्य पेशा कृषि है I ये लोग झूम खेती करते हैं I भूमि पर सामुहिक अधिकार होता है तथा ग्राम परिषद् का कर्तव्य है कि वह झूम कृषि के लिए भूमि का वितरण समान रूप से करे I महिला – पुरुष सभी खेतों में काम करते हैं I दो या तीन वर्षों तक आबंटित जमीन में खेती की जाती है, इसके बाद उसकी उर्वरा शक्ति कम हो जाती है I अतः दो वर्षों के बाद ग्राम परिषद् द्वारा खेती के लिए नई भूमि का आबंटन किया जाता है I महिलाएं कताई – बुनाई में दक्ष होती हैं I बुनाई इन आदिवासियों का कुटीर उद्योग है I इनके बुने हुए कपडे कलात्मक और मजबूत होते हैं I बांस और बेंत की गृहोपयोगी वस्तुएं बनाने, लकड़ी और लोहे के सामान बनाने में पुरुष लोग पारंगत होते हैं I प्रायः सभी जनजातियों में युवागृह की परंपरा विद्यमान है I इसे अलग – अलग नामों से जानते हैं I प्रत्येक गाँव में कम से कम एक युवागृह अवश्य होता है I इसमें ग्रामीण युवक पारंपरिक कला और शिल्प का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं I पंद्रह वर्ष से ऊपर के सभी युवकों के लिए युवागृह में रात्रि विश्राम करना अनिवार्य है I युवक यहाँ पर संगीत, नृत्य, हस्तशिल्प, खेल – कूद आदि का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं I इसमें बिछावन लगे होते हैं जिस पर युवक रात्रि शयन करते हैं I गाँव में आनेवाला अतिथि भी रात में यहाँ पर विश्राम कर सकता है I युवागृह के बीच में अंगीठी होती है जो रात – दिन जलती रहती है, परन्तु आधुनिकीकरण और शिक्षा के प्रसार के कारण युवागृह की परंपरा धीरे – धीरे समाप्त होती जा रही है I

प्रस्तुत पुस्तक सात – आठ वर्ष पहले तैयार हो गई थी लेकिन तब तक सरकारी संस्थाओं से मेरा मोहभंग नहीं हुआ था I मेरी इच्छा थी कि पुस्तक सरकारी प्रकाशन संस्थानों से प्रकाशित हो और उन आदिवासी समुदायों को अध्ययन के लिए उपलब्ध हो जिनके लिए यह पुस्तक लिखी गई है, लेकिन पांडुलिपि सात- आठ वर्षों तक भारत सरकार के नेशनल बुक ट्रस्ट और प्रकाशन विभाग के गोदामों में पड़ी – पड़ी प्रकाशन की प्रतीक्षा करती रही I यह मेरा दुर्भाग्य नहीं, बल्कि भारत सरकार के इन प्रकाशन संस्थानों का दुर्भाग्य है कि यहाँ जड़विहीन, संवेदनहीन और खेमेबाज अधिकारी – संपादक पालथी मारकर बैठे हैं जिनके लिए पुस्तकों की गुणवत्ता – उपादेयता का कोई अर्थ नहीं है I यह देश की विडंबना ही है कि ऐसे अधिकारियों – संपादकों को इस पुस्तक के प्रकाशन के संबंध में निर्णय लेना था जो पूर्वोत्तर के भूगोल, इतिहास और सामाजिक जीवन से अपरिचित – अनभिज्ञ थे I पुस्तक की पांडुलिपि वापस कर दी गई क्योंकि पुस्तक की पांडुलिपि के अतिरिक्त मेरे पास न तो परिचय का कोई पासपोर्ट था, न ही किसी गॉड फादर का वीजा I यदि इन सरकारी संस्थाओं से पहले मेरा मोहभंग हो गया होता तो यह पुस्तक सात – आठ वर्ष पहले प्रकाशित हो चुकी होती I खैर, हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश विधि हाथ I अब यह पुस्तक ऐसे प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित हो रही है जिसने पूर्वोत्तर पर सर्वाधिक पुस्तकें प्रकाशित की हैं I मित्तल प्रकाशन के मालिक श्री कृष्ण मित्तल का पूर्वोत्तर के प्रति समर्पण स्तुत्य है I मैं उन्हें ह्रदय से धन्यवाद देता हूँ I प्रस्तुत पुस्तक हिंदी माध्यम से पूर्वोत्तर के आदिवासी समाज से परिचय प्राप्त करने के लिए एक वातायन उपलब्ध कराती है I पहले इस पुस्तक को “पूर्वोत्तर के आदिवासी, लोकसाहित्य और संस्कृति” शीर्षक से प्रकाशित करने का विचार था लेकिन पृष्ठों की संख्या अधिक हो जाने के कारण अब यह दो अलग – अलग नामों से प्रकाशित हो रही है – “उत्तर – पूर्वी भारत के आदिवासी” और “उत्तर – पूर्वी भारत का लोकसाहित्य” I “उत्तर – पूर्वी भारत के आदिवासी” शीर्षक पुस्तक के बाद “उत्तर – पूर्वी भारत का लोकसाहित्य” भी शीघ्र प्रकाशित होगी I प्रस्तुत पुस्तक में पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी समाज की जीवन – शैली, लोक परंपरा, लोक विश्वास और संस्कृति को जानने – समझने का विनम्र प्रयास किया गया है I पूर्वोत्तर के आदिवासियों के संबंध में हिंदी समाज का ज्ञान अत्यंत सीमित है I इसलिए इन आदिवासियों के संबंध में तरह – तरह की भ्रांतियां और मिथ्या धारणाएं व्याप्त हैं I हिंदी भाषा में इन आदिवासियों पर केंद्रित अभी तक कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं है I यह पुस्तक इन समुदायों के बारे में व्याप्त सभी प्रकार की भ्रांतिमूलक धारणाओं का खंडन करने में सहायक सिद्ध होगी I आशा है, यह पुस्तक प्राध्यापकों, छात्रों, शोधकर्ताओं और पूर्वोत्तर भारत में रुचि रखनेवाले विद्वानों के लिए उपादेय सिद्ध होगी I
फरीदाबाद

उत्तर – पूर्वी भारत के आदिवासी साहित्य जन मंथन

वीरेन्द्र परमार
103, नवकार्तिक सोसायटी,
जी. एच. – 13, सेक्टर-65, फरीदाबाद-121004
मोबाइल- 9868200085
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