बापूधाम एक्सप्रेस (कहानी)

बापूधाम एक्सप्रेस (कहानी) साहित्य जन मंथन

सुबह की हल्की भीनी-भीनी किरणों में बैठकर कितना अच्छा महसूस हो रहा है। पीछे की बालकनी में पड़े ईज़ी चेयर में बैठकर पैरों के सहारे धीरे-धीरे कुर्सी में हिलते हुए मैं बेहद शांत महसूस कर रहा हूँ। रात में आये सारे दोस्त डिनर के बाद चले गए थे। बेडरूम में सारे सामान ईधर-उधर बिखरे पड़े हैं। फ़र्श पर गिरे केक के टुकड़े, टेबल पर पड़े जुठे चाय के कप, नमकीन के पैकेट, जूतों के निशान। सब कितना बेतरतीब लग रहा था। अच्छी लग रही थी तो बस एक चीज़ – बिस्तर के सिरहाने पड़ा हुआ, गोल्डन कलर के फ्रेम में सजाया हुआ उसका फ़ोटो। जो रात में उसके जन्मदिन का केक काटने के लिए दीवार से उतारकर यहाँ रख दिया गया था। बिंदास ठहाके मारकर हँसती हुई वह बेहद खूबसूरत और जीवंत लग रही है। ध्यान से देखिये तो लगता है बस अभी फ्रेम से बाहर निकलकर पास में बैठ जाएगी। उसकी ठहाके मारने वाली अदा हमेशा मेरे दिल को भाती थी। आज कैसी होगी वो? खुश तो होगी ना? रात को मेरा फ़ोन क्यों नहीं रिसीव किया उसने? शायद वो अपने घर वालों या ऑफिस वालों के साथ जन्मदिन मनाने के लिए बाहर गई होगी। नहीं-नहीं शायद वो मुझसे बात ही नहीं करना चाहती। नहीं रखना चाहती हो मुझसे किसी तरह का रिश्ता। क्यों मैं आज भी मनाता हूँ उसका जन्मदिन, क्यों दोस्तों की मंडली बुलाकर हर साल उसके नाम का केक मैं काटता हूँ। ये सब सोचते हुए मैं होंठ हिलाते हुए बुदबुदाया- कितना सुनसान है ये जगह आज ना। कोई नहीं आ पा रहा है इधर महज तुम्हारी मीठी यादों के रूही। आज कोई छू भी नहीं सकता मुझे यहाँ महज तुम्हारे एहसासों के।

कभी बालकनी में खिले सुंदर फूलों को निहारता हुआ, तो कभी नीचे लॉन में खेलते झगड़ते मासूम बच्चों को एक टक देखता हुआ मैं उसकी अंतिम मुलाक़ात की यादों में खोने लगा।
तुम्हारे साथ भारतीय रेल में की गई चंद घंटों की यात्रा तो ख़त्म हो गयी लेकिन वहां से शुरू हुआ तुम्हारे साथ का सफर तो अब जैसे मेरी मंज़िल ही बन गयी हो। जो कभी ख़त्म ही नहीं होती। उन चंद लम्हों के एहसास ने आज मेरे दिलो-दिमाग में पूरी तरह जगह बना ली है। मैं हर वक्त खुद को उसी में खोए रखना चाहता हूँ। कभी भोर के सपनों में तुमसे बाते करता हूँ, तो कभी रात की गहरी नींद में कुछ-कुछ बुदबुदाता रहता हूँ। कभी तुम बड़े शांत मन से अपने दास्तान सुना रही होती हो, तो कभी मैं पूरे अधिकार से अपने दार्शनिक अंदाज़ में तुमको कुछ-कुछ समझाता हूँ। बीच-बीच में बेतरबी से हुए मेरे स्पर्श पर तूम मुझे टोकती हो “शिवम ये ट्रेन है लोग हमे देख रहे हैं”। या फिर कुछ सामान टूट न जाये उसके लिए सावधान करती हो।
मेरा दिल तुम्हारे साथ के पिछले कई मुलाक़ातों को भूला देना चाहता है, जिससे कि इस सुहाने सफ़र को ज़िन्दा रख सके, इसे जी सके। क्योंकि ये सफ़र महज सफ़र नहीं हैं बल्कि ज़िन्दगी का सबब है, एक एहसास है जो मेरी रूह को बड़ी ही गहराई से छू देता है।
तड़के सुबह बनारस स्टेशन पर हमारी ट्रेन पहुँचने वाली ही थी कि ट्रैन अटेंडेंट आकर बोला ‘सर जग जाइये हम पहुँचने वाले हैं’। हालाँकि मैं सोया नहीं था आँखे बंद कर कुछ गंभीर चिंतन में डुबा हुआ था। तभी बगल के केबिन से आवाज आयी ‘शुक्र है ट्रेन ठीक-ठीक टाइम से आ गयी, देखिये उधर दूसरे प्लेटफार्म पर बापूधाम एक्सप्रेस खड़ी है’ बापूधाम एक्सप्रेस ये नाम जैसे ही मेरे कान में पड़ा मैं अचानक से उठ कर बैठ गया। ये वही ट्रैन है जिसमें वो बनारस से अपने घर गोरखपुर जाने के लिए अक्सर यात्रा करती है। एक बार तो तड़के सुबह इसी ट्रेन में बैठाने के लिए मैं उसके साथ कैंट स्टेशन भी गया था। कल शाम दिल्ली से चलते वक्त मैंने उससे बात करने की कई बार कोशिश की। बात नहीं हो पाई। वो बार-बार कहती रही मैं नहीं मिल पाऊंगी। मुझे सुबह किसी हाल में अपने घर जाना है। उसने मुझे ठीक से यह भी नहीं बताया कि वो किस ट्रेन से जा रही है। ऐसे में मैं उससे मिल पाने की सारी उम्मीदें खो चुका था। इसलिए बनारस पहुँच जाने तक भी अपनी सीट पर बेफ़िक्र लेटा रहा। ये तो सहयात्री से बापूधाम एक्सप्रेस नाम सुनकर मैं एक्टिव हो गया था। हड़बड़ाहट में जुते पहने और बैग लेकर ज़ल्दी से उतर जाने की फ़िराक में गेट पर आ गया। इतनी जल्दबाजी और हड़बड़ी इसके पहले मुझमें कब आयी थी मुझे याद भी नहीं है। अभी ट्रेन ठीक से स्टेशन पर रुकी भी नहीं थी कि मैं जल्दी से नीचे कूदा और उस प्लेटफॉर्म की तरफ भागा जिसपर बापूधाम एक्सप्रेस खड़ी थी। मैं उसको फोन करता हुआ, एक दरवाज़े से दूसरे दरवाज़े में झाँक कर उसको ढूँढना शुरू किया। मैं चंद मिनटों में ही पूरी ट्रेन में नज़र दौड़ा कर उसको खोज लेना चाहता था। वो मेरा फोन नहीं रिसीव कर रही थी, शायद उसने मेरा नम्बर ब्लॉक कर रखा था। मैं अपनी लंबी-लंबी खिंचती सांसों को थोड़ा काबू करते हुए वहाँ खड़े एक शख्स़ से बोला “भैया एक फोन लगा देंगे क्या, दरअसल मेरे फोन में नेटवर्क नहीं है”। मेरे विनम्र आग्रह पर कुछ सेकेंड चुप रहने के बाद, उस शख्स़ ने नकारते हुए बोला “नहीं”। मैं रुंधे हुए गले से ‘इट्स ओके’ बोलते हुए आगे निकलने लगा। तब तक पास खड़े एक अधेड़ उम्र के अंकल ने अपना छोटा-सा नोकिया फ़ोन मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए बोले ‘लो बेटा मेरे फ़ोन से बात कर लो’। मैं हल्का सुकून महसूस करते हुए उसका नंम्बर डायल करने लगा तब तक अचानक से मेरे ही फोन की घण्टी बजी, मैं घबराते हुए बोला “अरे बाबा तुम कहाँ हो, अगर तुम बाबूधाम में ही हो तो मैं भी इसी प्लेटफॉर्म पर हूँ, तुम किधर बैठे हो, मैं अभी ए.सी कोच फोर के पास हूँ।” मैं बिना सांस लिए एक रफ़्तार में बोलते हुए उस अंकल को बिना शुक्रिया कहे आगे बढ़ गया। शायद मैं इस कोशिश में था कि इससे पहले कि ट्रेन स्टेशन से खुल जाय मैं उसको एक झलक देख लेना चाहता था, उससे बहुत कुछ कह देना चाहता था।
ट्रेन में चढ़ने की जल्दबाजी में मैं फिर से हाँफने लगा था। वो ट्रेन में ऊपर की सीट पर चढ़कर बैठ गयी थी। जैसे ही मेरी नज़र उसपर पड़ी, वो अपनी आंखें मुझपर टिकाई रह गयी। उसकी गहरी आँखे मुझे जैसे खुद में डुबो लेना चाहती थी। आंसू उसके गालो को छूने को थे। ऐसा लग रहा था जैसे उसकी न झपकती हुई पलकें मुझसे पानी सोख रहीं थी और उसकी डबडबाती आँखें उसी पानी को शीतल कर मुझे भिगो कर सुकुन देना चाहती हों। अब मुझे जुबिन नौटियाल का गाया वो गाना याद आने लगा था –
“अखियों का है ये पानी बेजुबाँ ,दर्द मेरा कह पाए ना,
वो साथी, वो साथी, वो साथी, तेरी चिट्ठी पते पे आये ना,
तेरी मेरी कहानी कह रहा, दिल का टूटा आईना,
वो साथी वो साथी, वो साथी, तेरी चिट्ठी पते पे आये ना”
“फाइनली तुम माने नहीं, आ ही गये ना” वो अपने आसुंओं को सँभालते हुए, रुँधे गले से बोली। आँखों से ही सब कुछ कह देने की उसकी चाल और सवाल करने का अंदाज़ आज भी एकदम नहीं बदला है इसलिए ये सब फिर से मेरे ज़ेहन में भीतर तक उतर आया। अचानक से मुझे न जाने क्या हो गया। मैं बेहद शांत हो गया। और वो मेरे सारे सवाल जो मैं सोच ही रहा था कि उससे मिलते ही दागुंगा – तुम मेरा नम्बर क्यों ब्लॉक की हो? तुमने मुझे ठीक-ठीक क्यों नहीं बताया कि तुम बापूधाम एक्सप्रेस से घर जा रही हो? तुम मुझे फ़ोन क्यों नहीं करती हो? और जब कभी भी मैं फ़ोन करता हूँ तो तुम क्यों मुझपर चिल्लाकर मेरा फ़ोन काट देती हो? तुमने
व्हाट्सप्प भी ब्लॉक किया है मेरा, मैसेज का भी जबाब नहीं देती हो तूमको हो क्या गया है रूही?
ये मेरे सारे सवालों का जवाब जैसे वो बिना मुझसे सवाल सुने ही मानो एक मुस्कुराहट में ही दे दिया था और मैं संतुष्ट भी हो गया था। मैं उसके बगल में रखे बैग को हटाते हुए जगह बना कर ऊपर जाकर बैठने की कोशिश कर ही रह था कि वो फिर बोली ‘अरे तुम ऊपर क्यों आ रहे हो? ये ट्रेन अभी चलने वाली है’। इस बार उसकी आवाज़ थोड़ी ऊँची ज़रूर थी लेकिन उसमें एक फ़िक्रमंदी थी, ट्रेन चल देगी और मैं उतर नहीं पाऊंगा इस बात की चिंता थी। मैं उसको अनसुना करते हुए उसके बगल में बैठ गया। “अच्छा तब ये बोलो न कि तुम मेरे साथ आगे तक चलोगे। चलो अच्छा तुम सिटी स्टेशन उतर जाना। अरे ये ट्रेन तो सिटी भी नहीं रुकती है। अच्छा चलो आगे कहीं उतर जाना”। मैं चुप-चाप उसको सुनता रहा, जैसे मैं उसी को सुनने के लिए ही तो आया हूँ। मैं बेफ़िक्री से उसकी आँखों मे देखते हुए बोला “कोई नहीं कहीं भी उतर कर वापस आ जाऊँगा”। वो थोड़ी निर्दयता दिखाते हुए बोली ‘चलो तुम्ही को आना होगा अकेले वापस, मुझे क्या’।

ट्रेन चलने लगी, बात-चीत भी चलती रही, उसने चाय पीने की इच्छा जताई, मैंने चाय मंगाई लेकिन चाय अच्छी न होने से उसने पीने से इन्कार कर दिया। वो बोलती रही, ‘शिवम, मैं जीवन से बहुत थक चुकी हूँ। मैं इस आदमी से पीछा छुड़ाना चाहती हूँ। इसने मेरे पूरे जीवन को , दिनचर्या को और मेरे वजूद पर जैसे कब्ज़ा कर रखा है। मेरी कोई अहमियत ही नही रह गयी है। इसमें मेरी ही गलती है। मैं निकलना तो चाहती हूँ इन सबसे, मैं निकल नहीं पा रही हूँ। मेरे आस-पास की दुनिया भी इसकी वजह से ख़त्म हो गयी है। अपनी पावर का कोई इतना दुरूपयोग कैसे कर सकता है। सारी मेरी गलती है। मैंने ही उसको इतना स्पेस दे दिया। मैं बहुत पागल हूँ ना, मैंने जल्दबाजी में एक निर्णय लेकर अपनी लाइफ़ को नरक बना रखा है। इन सबके लिए मैं खुद दोशी हूँ’।
मैं बड़ी ही शिद्दत से उसकी बातों को सुनता रहा। उसके चेहरे को, उसकी आँखो को, उसके दिल मे छुपी बेचैनी और लाचारी को पढ़ता रहा। पूरी दास्तान सुनकर मेरी रूह जैसे कांप उठती। मैं बीच-बीच में बोलता “वो बाबा तुम क्या कर रहे हो अपने साथ, कहाँ फ़स गए हो यार। देखो एक साथी की तरह मैं बिना किसी उम्मीद के हर दौर में हर शर्तों पर तुम्हारे साथ खड़ा हूँ। तुम एक बहादुर लड़की हो । कोशिश तो करो ईमानदारी से जल्दी ही निकल जाओगे इन सब से’।

चूंकि रूही के साथ आज मेरा रिश्ता भी काफ़ी उलझा हुआ और नाममात्र का बचा था। आज हम एक साथ बैठकर इस ट्रेन में सफ़र कर रहे हैं तो ये मेरी एक तरफ़ा कोशिश का परिणाम है। दिल्ली से बनारस निकलने से पहले कल शाम अनायास मुझे रूही को फ़ोन करने का ख्याल मेरे ज़ेहन में आ गया। बहुत थोड़ी ही बात-चीत में उसने बताया कि वो सुबह, बनारस से अपने घर को जाने वाली है। एक और बात जो उसने बिना कहे ही स्पष्ट बता दी थी वो यह कि मुझसे मिलने में उसकी कोई विशेष रुचि नहीं है।
ऐसे में मैं बहुत ज़्यादा कुछ उसको कहने या उसे समझाने की स्थिति में नहीं हूँ। सच्चाई तो यह है कि जिस मनोदशा से आज वो गुज़र रही है उसमें बहुत ज़्यादा कुछ समझाने या सुझाव देने का कम ही स्कोप बचा है।
आज मैंने अरसे बाद महसूस किया उसके दिल का दर्द। ये सब मुझे पहले से भी पता था लेकिन आज शायद मेरी खुद मानसिक और भावनात्मक स्थिति ऐसी थी कि मैं इसे गहराई से महसूस कर पा रहा था। वो खुद आज जैसे सब कुछ मेरे सामने उगल देना चाहती थी। जैसे कभी मैं रूही को दिन भर की अपनी हर छोटी-बड़ी बात बेसब्री से सुना देना चाहता था। बता देना चाहता था उसको खुद के एक-एक सांस को, एहसास को, दर्द को, जैसे कि उसके पास मेरी हर समस्या का समाधान हो।
एक दौर था जब रूही थोड़ी भी चिंता ज़ाहिर करती, मैं उसको तसल्ली देने के लिए झट से बोल पड़ता “अरे कोई बात नही रूही, जस्ट कूल-कूल बाबा, सब ठीक हो जाएगा, हम है ना”। उसको सांत्वना देकर मैं अकेले उसके सुनाए हर समस्या पर खूब उधेड़ बुन करता। कोई पॉसिबल रास्ता मन में तैयार रखता। लेकिन इन सबका उसको कुछ पता नहीं लगने देता। कभी -कभी वो कहती कि शिवम तुम बस कूल रहो, कूल रहो कहते रहते हो, करते कुछ नहीं। ये तुम्हारे कूल रहो कहने से सब ठीक हो जाएगा क्या। पागल कहीं के। मैं हँसते हुए बोलता ‘नहीं बाबा लेकिन घबराने से भी तो कुछ नहीं हो जायेगा । करता हूँ न मैं कुछ, निकाल लूँगा कोई रास्ता’।
फिर भी मैं उसको नहीं बताता की उसको कूल रहो कह देने के बाद मैं उसकी हर बात पर कितनी गम्भीरता से विचार करता हूँ। और एक हल ढूढ़ने में लग जाता हूँ।

मैं और रूही दिल्ली में आयोजित एक टेन डेज़ ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेन्ट प्रोग्राम में मिले थे। रूही बनारस बेस्ड एक कंपनी में एच.आर पद पर काम कर रही थी और मैं दिल्ली में अपनी कंपनी में अभी-अभी एम.डी का पद सम्हाला था। सेमिनार में पहले दिन इंट्रोडक्शन के बाद एक ग्रुप प्रेजेंटेशन कराया गया। संयोगवश रूही मेरे ही टीम का हिस्सा बनी। अनौपचारिक रूप से मैं अपने ग्रुप का नेतृत्व करने लगा। प्रेजेंटेशन के लिए पांच सदस्यों में से मैं और मेरे दो अन्य साथी ही प्रजेंटेशन टेबल पर आगे आए। अन्य दो सदस्य नर्वस होने की वजह से प्रेजेंटेशन टेबल पर नहीं आए। रुही भी नर्वस थी इसलिए वह भी हमारे साथ प्रजेंट करने के लिए आगे नहीं आयी। सेशन समाप्त होते ही लंच ब्रेक में मैं रुही के पास जाकर उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाते हुए बोला “हेलो नूरी मेरा नाम शिवम है, आप बनारस से आई हैं दरअसल मेरा घर भी बनारस में है। आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा। मेरी तरफ़ हाथ बढ़ाते हुए रूही बोली “हाय शिवम मेरा नाम नूरी नहीं बल्कि रुही है, बाय द वे आपने बहुत अच्छा बोला, आपको सुनकर अच्छा लगा”। “ओह माफ़ करिएगा आई एम सो सॉरी रूही प्लीज़ माफ़ करिएगा” मैं मुस्कुराते हुए बोला। “अरे कोई बात नहीं इट्स ओके, हो जाता है कभी-कभी”। रूही यह बात इतनी शिद्दत से बोली जैसे आज भी वो वक़्त मेरे ज़हन में ज़िन्दा बैठा हो। दूसरे दिन अचानक मुझे बनारस के लिए निकलना पड़ा। निकलते हुए मैंने अपने फ़ोन में रूही का नंबर नोट करते हुए उसको बोला दरअसल मुझे बेहद निजी कारणों से घर जाना हो रहा है बाकी मैं आपसे फ़ोन पर बात करूंगा। मुझे लौट कर आने में लगभग चार-पांच दिन लग गए जिस दिन मैंने जॉइन किया उस दिन रुही सुबह थोड़ी लेट आई लंच ब्रेक में हमने साथ लंच किया और मैंने रुही को ऑफ़र किया की आइए हम आपको अपनी कंपनी घुमाते हैं। रुही मेरे साथ आई और देर शाम तक हम अपने कैंपस में घूमते रहे। कंपनी के ही मेस में हमने साथ डिनर किया और फिर मेट्रो तक रुही को सी ऑफ़ किया। वह अपने हॉस्टल चली गई । अगले दिन रुही ने बताया कि वह कोर्स ख़त्म होने से दो दिन पहले ही वापस जाना चाहती है। ऐसे में मैंने उसे दोबारा अपने आवास आने का आमंत्रण दिया। हमने लगभग तय किया था कि हम रात एक साथ रुकेंगे और सुबह यहीं से कॉन्फ्रेंस में जाएंगे। डिनर के बाद हम अपने कमरे में बैठे बातें करते रहे। बहुत करीब से एक दूसरे की बाहों में समाए कुछ मीठी बातें करते रहे। फिर अचानक से रूही को न जाने क्या हुआ वह मुझसे बोली ‘शिवम मुझे जाना है मुझे एक दोस्त के पास जाना है प्लीज मुझे जाने दो’। शायद रुही किसी जद्दोजहद में थी कि मेरे साथ वह किस तरह का संबंध रखना चाहती थी शायद वो ये बात अभी तक तय ही नहीं कर पाई थी। मेरे थोड़े आग्रह के बाद भी रुही जाने की ज़िद करने लगी। मैंने बड़ी विनम्रता से उसे उसकी कार तक छोड़कर आया। वापस आकर मैं अकेला अपने रूम में सोचता रहा कि किस बात से नाराज़ हो गई होगी। मैं समझ ही नहीं पा रहा था अचानक से हवा के झोंके की तरह आयी रुही इतने कम दिनो में मेरे दिल-दिमाग़ में एक बड़ी-सी हलचल पैदा कर चुकी थी और आज आंधी की तरह चली गई। अब तक आधी रात गुज़र चुकी थी। अब रूही का फ़ोन स्विच ऑफ़ था। मैं टेबल पर रखी अपनी डायरी उठाकर रुही से मिलने से लेकर आज तक के अपने सारे एहसास को शब्दों में पिरोया और उसे रुही को भेज दिया। अगले दिन जब मैं सेमिनार हॉल में पहुंचा तो वो अभी नहीं आई थी। वो थोड़ी लेट आई वो भी अपने पूरे लगेज के साथ, क्योंकि आज ही उसे बनारस के लिए निकलना था। फिर से लंच ब्रेक में वो मुझे अकेले बुलाकर बात करना चाहती थी। मुझे एक कोने में ले जाकर मेरे दोनों हाथ को अपने हाथो में लेकर उस दिन रुही ने जो बात कही वह आज भी मुझे बख़ूबी याद है “शिवम ,कल के लिए माफ़ी, कल तुम्हारे घर से निलते हुए मुझे तनिक भी उम्मीद नही थी कि मैं तुमसे दुबारा मिल पाऊँगी। पूरी रात मैं नहीं सो पायी, भोर में मुझे तुम्हारा लिखा हुआ लेटर मिला। तुमने जो भी लिखा है वो सब कुछ मेरे दिल को छू गया है। तुम ना केवल अच्छा बोलते हो बल्कि कितना खूबसूरत लिखते भी हो। यह सब कुछ दिल में उतर गया है। बहुत अच्छा लगा तुम्हारे साथ बिताये ये कुछ दिन। फिर कभी मिलेंगे।” उसने मुझे प्यार से गले लगाया मैं उसको, उसके सामान के साथ मेट्रो स्टेशन छोड़ने चला गया। जहां से उसे न्यू दिल्ली होते हुए बनारस को निकलना था। फिर बीच में मेरा कई बार बनारस आना-जाना हुआ। कई दफ़ा रूही मुझसे मिलने दिल्ली भी आया करती थी। हम दोनों बहुत क्लोज़, और एक दूसरे के साथ बहुत खुश रहने लगे थे। अब हमारे और रूही के बीच वो सब कुछ होता रहा जो कभी उस रात मेरे रूम में होते-होते रह गया और रूही अचानक ही मेरे घर से चली गयी थी। अब रूही के आस-पास होना, उससे मिलना, बातें करना मुझे बहुत अच्छा लगता था। मैं उसको हर बार बोलता था “जानती हो रुही जब मैं तुम्हारे साथ होता हूँ मेरा रोम-रोम ज़िन्दा हो जाता है। बहुत प्यार करने लगा हूँ तुमको। जवाब में वो मुझसे बोला करती थी “शिवम एक प्रॉमिस करो मुझसे, तूम मेरे साथ इस रिश्ते को बहुत लंबे समय तक निभाओगे, टूटने नहीं दोगे इस रिश्ते को, देखो मैं थोड़ी-सी पागल हूँ इसलिए तुम्हारी ज़िम्मेदारी है कि तुम इस दोस्ती को ताउम्र ज़िन्दा रखोगे। सच कहूँ तो मैं तुमको खोना नहीं चाहती। हर रोज़ तुमको खोने से डर लगता है। बहुत कम समय में तुम्हारे बहुत करीब आ चुकी हूँ”। मैं उसके दोनों हाथ थाम लेता और बोल पड़ता “रुही यह तिनका इस ज़िम्मेदारी को बख़ूबी निभाएगा। और अपनी हर सांस तक कोशिश करेगा यह दोस्ती हमेशा ज़िन्दा रहे। तुम भी एक काम करना रूही, अपने ठहाके मार कर हंसने वाले अंदाज़ को हमेशा बनाए रखना। ऐसे तुम बहुत ख़ूबसूरत लगती हो। इस तरह हम कई बार बनारस में मिलते रहे, कभी बनारस के घाट तो कभी गलियां, कभी चौराहे तो कभी कोई मंदिर। हर बार कुछ नई जगह घूम कर आया करते थे। एक शाम यूँ ही हम दोनो गंगा नदी के किनारे मशहूर अस्सी घाट पर बैठे हुए बातें कर रहे थे। पानी में कंकण मारते हुए रुही बोली ‘शिवम एक बात बताओ, ये इश्क़ क्या चीज़ है? लोग इश्क़ क्यों करते हैं? क्यों मरते हैं लोग इश्क में? मैं समझ गया था कि आज रुही मुझे सुनना चाहती है। मैं खूब बोलता रहूँ इसके लिए वो मेरे सामने ऐसे सवाल अक्सर दाग़ दिया करती है। अब मैं शुरू हो गया-

जानती रूही दुनिया में ये सवाल बड़ा ही पेचीदा है ।वो प्रेम रोग फ़िल्म का गाना याद है तुमको
“मोहब्बत है क्या चीज़ हमको बताओ?
ये किसने शुरू की, हमे भी सुनाओ…”

इसके जवाब में कभी मशहूर शायर मीर तक़ी मीर ने कहा –

‘इश्क़ इक मीर भारी पत्थर है…. कब ये तुझ ना-तवां से उठता है…”
मीर से उलट अकबर इलाहबादी के लिए –
“इश्क़ नाज़ुक मिजाज़ है बेहद…. अक्ल का बोझ उठा नहीं सकता…”

साहिर साहब ने तो क्या लाजवाब इश्क़ को परिभाषित किया है
अल्लाह-ओ-रसूल का फ़रमान इश्क़ है
याने हफ़ीज़ इश्क़ है, क़ुरआन इश्क़ है
गौतम का और मसीह का अरमान इश्क़ है
ये कायनात जिस्म है और जान इश्क़ है
इश्क़ सरमद, इश्क़ ही मंसूर है
इश्क़ मूसा, इश्क़ कोह-ए-नूर है”
अच्छा, सुनो-सुनो रूही! चाचा ग़ालिब क्या लिखते हैं-
“इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’
की लगाए न लगे और बुझाए न बुझे”
ये सुनते ही रूही मेरे होठों को जल्दबाजी में चुमते हुए बोलती है अच्छा, तो चाचा शिवम इश्क़ को क्या समझते हैं। हम दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ते हैं ।मैं उसके कान में बुदबुदाते हुए बोला “ इसके लिए आपको थोड़ा और इंतजार करना होगा प्रिय रुही जी।

आज रूही को सुनकर, देखकर मेरे मन मे कई सवाल उठ रहे हैं। क्या आज वो यानी अरुन जिसके साथ आज कल रूही है, रुही को इतनी ध्यान से सुनता होगा? क्या इसके स्वाभाविक गुस्से को वो हँस कर टाल पाता होगा? क्या उसकी भरी हुई नम आँखों की कीमत को समझता होगा। क्या वो इसके ठहाके मारकर हसने के अंदाज़ की तारीफ़ करता होगा। क्या अरुन भी मीठी-मीठी बातें सुनाकर रूही के “सुनने” की कसकऔर शौक को पूरा करता होगा। उससे भी बड़ी बात क्या वो कहता होगा कि रूही तुम जैसी हो वैसी ही रहना, खुद के वजूद को नहीं मरने देना। तुम्हारा अस्तित्व, तुम्हारा होना, तुम्हारे स्वभाव से ही है, तुम हमेशा इसे ज़िन्दा रखना। आज इन सारे सवालों का एक ही जबाब है “नही कत्तई नहीं” । आज मैं पूरी ज़िम्मेदारी से कह सकता हूँ कि जब मैं रुही के साथ था तो हमेशा इन सवालों का जबाब ‘हाँ’ में होता था।
मैं रुही की हर कही बातों को ध्यान से सुनता रहा, मन ही मन बहुत कुछ सोचता रहा। अब हम काफ़ी दूर निकल आये थे। उसने मुझे कुछ फल खाने को ऑफ़र किया जो उसके किसी दोस्त ने उसे दिया था। मैंने सेब खाया। उसको भी खाने का आग्रह किया। आज उसका व्रत था, फल का कुछ हिस्सा उसने भी खाया। अब वो मुझे लेकर थोड़ा परेशान हो रही थी कि मैं वापस जाते हुए अकेले इतना लंबा सफ़र कैसे तय करूँगा। सच बताऊं मुझे इस बात का अभी भी तनिक अहसास नही था कि गोरखपुर से बनारस की लंबी दूरी मैं अकेले कैसे तय करूँगा। मेरा पूरा दिल-दिमाग़ उसकी ही फिक्र में उलझा हुआ था। हर यात्रा की तरह हमारी यह ट्रेन यात्रा अब समाप्त होने को थी। अब हम एक-दूसरे का हाथ थामे एक-दूसरे की नम आँखों में नज़र गड़ाए विदा होने को थे। चलते-चलते मैंने बोला ‘रूही याद है तुमको वो इश्क़ वाला सवाल, सुनो चाचा शिवम के लिए इश्क़ का नाम आज़ादी है या यूँ कहें इश्क़ ही आज़ादी है और आज़ादी ही इश्क़।
इस सोच में डूबे घंटो बीत गये थे। बिस्तर पर पड़े फ़ोन से आवाज़ आई, मैसेज फ्रॉम रूही। मैसेज बॉक्स में लिखा था “मेनी-मेनी थैंक्स फ़ॉर योर विश डिअर शिवम। तुमको बहुत याद किया, तुम सच कहते हो जो मैं आज समझ पाई, इश्क़ आज़ादी का ही दूसरा नाम है जो मुझे तुम्हारे बाद कभी नहीं मिली।

डॉ.सूचित कुमार यादव असिस्टेंट प्रोफेसर
हिन्दू कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय)

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