त्यागपत्र में चित्रित स्त्री जीवन की समस्याएं

त्यागपत्र में चित्रित स्त्री जीवन की समस्याएं साहित्य जन मंथन

“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता:।
यत्रेतास्तु न पूज्यंते सर्वास्त्रफला: क्रिया।।”१

अर्थात जहां पर स्त्रियों की पूजा होती है वहां देवता रमते हैं और जहां उनकी पूजा नहीं होती वहां सब काम निष्फल होते हैं। प्राचीन काल से ही स्त्री को देवी मानकर पूजा जाता है और उसी स्त्री को वासना और कामना की मूर्ति बनाकर उसे शोषित, प्रताड़ित किया जाता है। स्त्री का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। मनु के अनुसार :- “स्त्री को बचपन में अपने पिता, युवावस्था में अपने पति और जब उसका पति दिवंगत हो जाए तब अपने पुत्रों के अधीन रहना चाहिए। स्त्री को कभी भी स्वतंत्र नहीं रखना चाहिए।” २ यह है हमारा समाज और उसके नियम कानून जहां एक ओर वह साक्षात देवी की प्रति मूर्ति है और दूसरी और वह कामना और वासना की मूर्ति उसकी इच्छा अनिच्छा की परवाह कभी नहीं की जाती और इस व्यक्त करने की भी स्वतंत्रता उसके पास नहीं होती।


जैनेंद्र कुमार कृत ‘त्यागपत्र’ एक मनोविश्लेषणात्मक तथा नायिका प्रधान आत्मकथात्मक उपन्यास है इसमें नारी – जाति संबंधी समस्याओं को उठाया गया है जैनेंद्र ने त्यागपत्र में मृणाल की व्यथा कथा लिखी है, लेकिन उसकी समस्याएं केवल उसी की अपनी समस्याएं नहीं हैं अपितु उसकी सारी समस्याएं सामान्य नारी जाति से भी संबंधित हैं। जैनेंद्र ने त्यागपत्र में स्त्री जीवन की समस्याओं को पारिवारिक संरचना के आधार पर व्यक्त किया है। त्यागपत्र में तीन प्रकार की पारिवारिक संरचना है- संयुक्त परिवार, एकल परिवार तथा साहचर्य परिवार। संयुक्त परिवार में स्त्री को आदर्श आर्य गृहणी बनाए जाने की समस्या, प्रेम तथा उसके दमन की समस्या, जीवन साथी ना चुनने की समस्या और अनमेल विवाह की समस्या मृणाल के माध्यम से चित्रित की गई है। एकल परिवार मृणाल का ससुराल है जहां वह पतिव्रता पत्नी का धर्म निभाती हैं और पतिव्रता को हमेशा सच्ची होना चाहिए तभी वह पति पर समर्पित हो सकती हैं यहां वह सच बोलती है और सच बोलने पर समस्या उत्पन्न होती है उसके शोषण की और उसके परित्याग की। साहचर्य परिवार वह परिवार है जहां परित्यक्ता होकर मृणाल कोयले वाले के साथ साहचर्य स्वीकार करती है जहां उसे रूप की समस्या आर्थिक समस्या और सामाजिक दबाव का सामना करना पड़ता है।


भारत में एक सामान्य स्त्री का जीवन एक त्रिशंकुजीवन है, माता-पिता भी उससे मुक्ति चाहते हैं। लड़की केवल उनके सिर का बोझ है जिसे वे उसकी शादी करके जल्दी से उतार फेंकते हैं क्योंकि सैकड़ों हजारों वर्षों के संस्कारों ने उनके मन में यह बात बिठा दी है कि स्त्री का घर उसके पिता का घर नहीं बल्कि उसका ससुराल, उसके पति का घर है, जहां सात फेरे लगवा कर भेज दिया जाता है। इसी धारणा के अंतर्गत आदर्श आर्य गृहिणी की समस्या उत्पन्न होती है जहां एक स्त्री को पति के घर जाने से पूर्व वे संस्कार सिखाये जाते हैं जो एक आदर्श बहु, पत्नी इत्यादि अन्य रिश्तों में खरी उतरती है । त्यागपत्र में मृणाल की भाभी भी मृणाल को आदर्श आर्य गृहिणी की शिक्षा देना चाहती है इसलिए वे जितनी कुशल गृहिणी थी उतनी कोमल न थीं। मृणाल अपनी भाभी के संरक्षण में रहती थी और वह संरक्षण ढीला न था, उनका अनुशासन बहुत ही कड़ा था वह मृणाल को एक आदर्श आर्य गृहिणी की मशीन जैसी स्त्री बनाना चाहती थी, जो ससुराल जाकर पति की सेवा सुश्रुषा अच्छे से कर सके :- “पिता का स्नेह बिगाड़ न दे, इस बात का मेरी माता को खास ख्याल रहता था। वह अपने अनुशासन में सावधान थीं। मेरी बुआ को प्रेम करती थीं यह तो किसी हालत में नहीं कहा जा सकता, पर आर्य गृहिणी का जो उनके मन मे आदर्श था, मेरी बुआ को वे ठीक उसी के अनुरूप ढालना चाहती थीं।”३ किंतु मृणाल यौवन के उस द्वार पर आ खड़ी थी जहां उसे प्रेम होता है और प्रेम करते ही उसमें बदलाव आ जाते हैं। अब एकांत उसे उतना बुरा नहीं लगता अपनी धुन में मगन मृणाल स्वतंत्र हो खुले आकाश में उड़ना चाहती है प्रेम करते ही उसमें आकाश में रहने की आकांक्षा जागृत होती है :- “हां, चिड़िया ! उसके छोटे छोटे पंख होते हैं, पंख खोल वह आसमान में जिधर चाहे उड़ जाती है। क्यों रे, कैसी मौज है! नन्ही सी चिड़िया, नन्ही सी पूछ। मैं चिड़िया बना चाहती हूं।”४


हमारे समाज में एक स्त्री को प्रेम करने का अधिकार नहीं, यदि वह ऐसा करती हैं तो उसे दंड दिया जाता है लेकिन मृणाल को जब प्रेम का अनुभव होता है वह बिना सोचे समझे उन्मुक्त खुले आकाश में चिड़िया बन उड़ जाना चाहती हैं, डॉ. हरदयाल के शब्दों में -: “आर्य समाजी भाभी के कठोर अनुशासन में रह रही यौवन की द्वार पर पैर रख रही मृणाल के मन में शीला के भाई के प्रति फूटने वाले प्रेमांकुर की अभिव्यक्ति चिड़िया बनने की आकांक्षा के रूप में सटीक अभिव्यक्ति पाती है।”५ पितृसत्तात्मक समाज में एक स्त्री चिड़िया नहीं बनने दिया जाता, उसके पंख काट कर उसे पिंजड़े में बंद कर दिया जाता है। स्त्री की यह सबसे बड़ी समस्या है कि पहले तो उसे प्रेम करने ही नहीं दिया जाता उसे कड़े अनुशासन में रखा जाता है और यदि वह प्रेम कर बैठती है तो उसे दंड दिया जाता है मारा पीटा जाता है’ त्यागपत्र’ की मृणाल भी भाभी के द्वारा दैहिक प्रताड़ना का शिकार होती है और उसे अपने प्रेम का दमन करना पड़ता है। जैनेंद्र प्रेम तथा नारी को समाज के रूढ़ किंतु दोहरे मूल्यों तथा मानदंडों के विरुद्ध खड़ी होते दिखाना चाहते हैं। वह नारी मृणाल है, मृणाल मध्य वर्गीय परिवार की किशोरी है और इसी किशोर वय में उसने एक युवक से प्रेम किया लेकिन मृणाल को दैहिक प्रताड़ना द्वारा यह एहसास गया कि अपनी पसंद की सखी से मिलना तो ठीक है किंतु अपने पसंद के सखा से मिलना गलत है। उसकी भाभी द्वारा उसे बेंत से पीटा जाता है पर मृणाल बिल्कुल विद्रोह नहीं करती। बेंत की पहली चोट पर एक चीख निकलती है उसके बाद वह सिर्फ सहती रहती है और गुमसुम पड़ी रहती हैं। किसी भी स्त्री को मृणाल की तरह प्रेम करने की स्वतंत्रता नहीं, यदि वह ऐसा करती है तो उसकी भी वही हालत होती है जो मृणाल की है :-“वहां बुआ औंधी हुई पड़ी हैं। उनकी साड़ी इधर उधर हो गयी और बदन का कपड़ा बेहद मार से झीना हो गया है। जगह जगह नील उभर आए हैं, कहीं लहू भी झलक आया है।”६ स्त्री के जीवन की सबसे बड़ी विडंबना है कि वह अपने जीवन साथी तक को चुनने का अधिकार नहीं रखती, उससे कभी नहीं पूछा जाता जिसके साथ उसे जीवन बिताना है वह उसे पसंद है या नहीं। बस उसके मां बाप जिससे चाहे उसके साथ साथ फेरे लगवा कर भेज देते हैं। त्यागपत्र की मृणाल का विवाह इसी सभ्यता को मुखरित करता है। वैसे स्त्री की सबसे बड़ी समस्या तो उसका विवाह है, वह जिसे प्रेम करती है समाज कभी उसे उसके साथ विवाह नहीं करने देता बल्कि किसी दूसरे के साथ उसका विवाह कर दिया जाता है। स्त्री के अनमेल विवाह की समस्या त्यागपत्र के माध्यम से चित्रित हुई है, मृणाल का एक दुहाजू पुरूष से अनमेल विवाह करा दिया जाता है। ‘त्यागपत्र मृणाल के अनमेल विवाह से और उसकी विसंगति से उपजा ऐसा उपन्यास है जो एक स्त्री की दीनता को प्रत्यक्ष करता है, पूरे हिंदू समाज को उसकी ढोंगी नैतिकता के साथ कटघरे में ला खड़ा करता है।’७ यदि हम समाज में रहते हैं तो सामाजिक नियमों के निर्वाह के लिए ढोंगी होना जरूरी है क्योंकि इस समाज में छल करने वाले ही नामवर होते हैं और सच बोलने वालों को सजा दी जाती है लेकिन चूंकि मृणाल झूठ नहीं बोल सकती फलस्वरुप वह अपने पति से विवाह पूर्व प्रेम की बात बता देती है क्योंकि वह कहती है :- “मैं छल नहीं कर सकती, छल पाप है। हुआ जो हुआ, ब्याहता को पतिव्रता होना चाहिए। सच्ची बनकर ही समर्पित हुआ जा सकता है।”८ परन्तु मृणाल सच बोलकर बेवकूफी ही करती है, इस समाज में सच बोलना सबसे बड़ी बेवकूफी है। मृणाल ने कोई छल नहीं किया क्योंकि वह सच बता कर अपने पति के प्रति समर्पित होना चाहती थी पर समाज के उस पति परमेश्वर ने उसे चरित्रहीन और हरामजादी कहकर घर से निकाल बाहर कर दिया।

वस्तुतः त्यागपत्र में मृणाल के माध्यम से स्त्री जीवन की सबसे बड़ी विडंबनात्मक समस्या ‘अनमेल विवाह के दुष्परिणामों की समस्याओं’ का चित्रण हुआ है मृणाल अपने घर में प्रताड़ित होती थी और ससुराल में भी उसका पति उसे पीटता था :- “सच कहती हूं, प्रमोद। किसी और से नहीं कहा, तुझे कहती हूं। बेंत खाना मुझे अच्छा नहीं लगता है। ना यहां अच्छा लगता है, ना वहां अच्छा लगता है।”९ हमारे शिष्ट समाज का नियम है यदि एक बार स्त्री का विवाह हो जाए तो वह पति की मर्जी से ही मायके आ जा सकती है। यदि ससुराल से नाता टूट जाए तो मायके से अपने आप ही रिश्ते टूट जाते हैं मृणाल भी पति से परित्यक्त होकर एक कोठरी में रहने लगती है। यहां उसके रूप की समस्या सामने आती है। स्त्री का रूप ही उसका सबसे बड़ा शत्रु है वह बहुत बड़ी समस्या को जन्म देता है। मृणाल अत्यंत रूपवती स्त्री थी तभी कोयले वाला उसके रुप का लोभी था और उसने उसकी पहले चोरी छुपे फिर उजागर मदद की और अंत में वह भी उसका शोषण करके भाग गया। मृणाल अत्यंत रुपवान थी यही एक ऐसा गुण था जो उसे प्रकृति प्रदत्त था और वही उसके अभिशाप का भी कारण बना :- “बुआ का तब का रूप सोचता हूं, तो दंग रह जाता हूं। ऐसा रुप कब किसको विधाता देता है। जब देता है तब कदाचित उसकी कीमत भी वसूल कर लेने की मन ही मन नियत उसकी रहती है।”१० मृणाल खुद को ही आत्मपीड़ा देती हैं और उसी आत्मपीड़ा में ही सुख पाती है। परित्यक्ता मृणाल पुनः एक कोयले वाले से दांपत्य जीवन स्वीकार करती है यद्यपि वह इस बात से वाकिफ है कि वह भी उसे छलेगा फिर भी वह उसके पास रहती है। यह कृत्य भी उसके आत्मपीड़क प्रवति का ही एक रुप है। उसका सारा जीवन ही आत्मपीड़ा और कुंठा का प्रतीक है। डॉ विजय मोहन सिंह के शब्दों में :- “इस रुप में यह सामाजिक नैतिकता के प्रति विद्रोह है लेकिन यह उस नैतिकता से मुक्ति नहीं है केवल उसकी नई व्याख्या है जो जैनेंद्र मृणाल के द्वारा प्रस्तुत करना चाहते हैं।”११ कोयले वाले के भी छोड़े जाने पर उसे आर्थिक समस्या का सामना करना पड़ता है, परन्तु वह एक शिक्षित स्त्री है इसलिए “कपड़े सीती थी और काम चलाती थी। बड़ी भली औरत थी, दुख दर्द में ढाढ़स बंधाती थी, बच्चों को घर बिठाकर पढ़ाया करती थी और सबके छोटे मोटे काम को तैयार रहती थी।”१२ लेकिन शिष्ट समाज को जब उसके परित्यक्तता होने का पता चलता था तो वह उसे काम पर से हटा देते थे। यहां उसे आर्थिक स्वावलंबन की समस्या का सामना करना पड़ता है।


समाज तथा सामाजिक मान्यताओं के प्रति विद्रोह आसान नहीं होता, उसकी कीमत चुकानी पड़ती है। कभी आत्मघाती या आत्मपीड़क बनकर और कभी प्रताड़ना का शिकार होकर पर मृणाल पतिगृह को छोड़कर एक कोयलेवाले के साथ रहकर प्रतिशोधात्मक और आत्मपीड़क निर्णय लेती है। वह कहती है :- “पति को मैंने नहीं छोड़ा। उन्होंने मुझे छोड़ा है। मैं स्त्री धर्म ही मानती हूं। उसका स्वतंत्र धर्म मैं नहीं मानती हूँ। क्यों पतिव्रता को यह चाहिए कि पति उसे नहीं चाहता, तब भी वह अपना भार उस पर डाले रहे? मुझे देखना भी नहीं चाहते, यह जानकर मैंने उनकी आंखों के आगे से हट जाना स्वीकार कर लिया उन्होंने कहा ‘मैं तेरा पति नहीं हूं’ तब मैं किस अधिकार से अपने को उन पर डाले रहती? पतिव्रता का यह धर्म नहीं है।”१३ मृणाल समाज की क्रूर छाया के भीतर जीवनयापन करती हुई सामाजिक मर्यादा को अंतिम सांस तक बनाये रखती है। वह अपनी व्यथा को अन्तस् में छिपाए हुए प्रतिष्ठित समाज की दृष्टि से दूर चली जाती है। वह स्वयं टूट सकती है किन्तु समाज मे स्वयं को लेकर क्रांति उत्पन्न करना उसे स्वीकार नहीं है। वह साफ कहती है :- “मैं समाज को तोड़ना फोड़ना नहीं चाहती हूं। समाज टूटा कि फिर हम किसके भीतर बनेंगे? या कि बिगड़ेंगे? इसलिए मैं इतना ही कर सकती हूं कि समाज से अलग होकर उसकी मंगलाकांक्षा में खुद ही टूटती रहूं।”१४ और अंत में मृणाल उस अशिष्ट समाज में जा पहुचंती है जहाँ समाज की झूठन रहती है। बिल्कुल निम्न स्तर के लोग, जहां छल टिक नहीं सकता। सच्चा कंचन ही वहां परखा जा सकता है। मृणाल उनकी समस्याओं को चित्रित करती नजर आती है उनको उस नरक से उबरने के लिए शिष्ट समाज से प्रार्थना भी करती है :- “खूब कमा और कमाकर सब इस गड्ढे में ला पटका कर। सुना कि नहीं? रुपये के जोर से यह नर्ककुण्ड स्वर्ग बन सकता है ऐसा तो मैं नहीं जानती। फिर भी रुपया कुछ न कुछ काम आ सकता है।”१५


त्यागपत्र में मृणाल के माध्यम से भारतीय परिवार में नारी की दयनीय स्थिति की समस्या चित्रित की गई है। नारी की दयनीय स्थिति की परंपरा शकुंतला के समय से चली आ रही है। शकुंतला का घर न तो कण्व ऋषि का आश्रम है और न दुष्यंत का राजमहल, माता पिता पहले ही त्याग देते हैं। सीता की भी यही नियति है वह भी गर्भवती रूप में ही राम द्वारा परित्यक्ता होकर आश्रम में पुत्र को जन्म देती है और अंततः धरती में ही शरण पाती है। भारत के ही नहीं संसार के इन दोनों महान महाकाव्यों में क्या कारण है कि स्त्री हज़ारों वर्षों के बाद भी मृणाल नाम की स्त्री की नियति और परिणति एक सी होती है? स्त्री हर जगह और हमेशा परित्यक्तता है लेकिन मृणाल साधारण स्त्री नहीं है, डॉ नगेन्द्र के शब्दों में :- “मृणाल के व्यक्तित्व में बुद्धि और संवेदना की प्रखरता के कारण एक असाधारणता है। अतएव एक साधारण मध्यवर्ग की युवती को दृष्टि में रखकर उसके व्यवहार की समीक्षा करना गलत होगा। जीवन में नकार पाकर उसका स्वभाव से ही संवेदनशील मन अतिशय संवेदनशील हो गया है।”१६ अपने अस्वभाविक जीवन की समस्याओं से जूझते हुए मृणाल में समाज व्यवस्था के प्रति जो तीखा असन्तोष उभरता है वह वस्तुतः उसका द्वंद्व ही है जो सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध उसे ले जाने में मदद करता है।
त्यागपत्र में चित्रित जैनेन्द्र की नारी परम्परा की लीक से हटकर यथार्थ की पगडंडी की ओर मुड़ने का प्रयत्न करती देखी जाने लगी। मृणाल का आंतरिक विद्रोह इतना तीव्रतम होता है कि पति का घर छोड़कर किसी निम्न स्तर के व्यक्ति के साथ रहकर भी वह अपने को पापिनी नहीं समझती। वह स्वतंत्रता वादी एवं बुद्धिजीवी बनकर विद्रोहिणी के रूप में सामने आती है। मृणाल समाज के सामने बाह्यरूप से भले ही भृष्टा के रूप में दिखती हो पर पाठक की पूर्ण सहानुभूति प्राप्त करती है। मोहनलाल रत्नाकर ने लिखा है :- “त्यागपत्र में मृणाल का जीवन संघर्ष चित्रित हुआ है। वह पीड़ित नारियों का प्रतिनिधित्व भी करती है। संघर्ष में टूटना यही उसका जीवन है। उसक संघर्ष व्यक्तिवादी मान्यताओं से अधिक प्रेरित है। किंतु वह समाज को तोड़ना फोड़ना नहीं चाहती।”१७ मृणाल को जो संघर्ष करना पड़ा वह उसकी आंतरिक मनोव्यथा का संघर्ष है। जब तक वह मायके में रही, भाभी द्वारा प्रताड़ित रही, ससुराल में रही तो पति द्वारा और परित्यक्तता होने के बाद समाज की कटूक्तियो द्वारा। डॉ लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ने इस उपन्यास को इन शब्दों में व्यंजित किया है-“यह उपन्यास घनीभूत वेदना का ऐसा मर्मस्पर्शी विजन है, जो मन को पूर्णतया उद्वेलित कर देता है और व्यक्ति यह सोचने पर विवश हो जाता है कि नारी की इस भयानक दुर्गति का उत्तरदायित्व किस पर है? सड़ी गली परम्पराओं पर- जहां नारी की स्वतंत्रता अभिशाप है और उसे शोषण के लिए निर्जीव गठरी मात्र समझ लिया जाता है या उस सामाजिक व्यवस्था पर जहां वह पुरूष की दासी बनने पर विवश है, क्योंकि उसके जीने का कोई आर्थिक आधार नहीं।”१८


अतः कहा जा सकता है कि त्यागपत्र में जैनेंद्र ने मृणाल के माध्यम से स्त्री जीवन की सभी समस्याओं को उजागर किया है। स्त्री के जीवन की यह विडम्बना है कि उसका उसके जीवन में अपना कुछ भी नहीं है। उसकी इच्छा अनिच्छा का हिसाब उसके मां बाप तथा पति और समाज के नियम कानून ही करते हैं। माता पिता के लिए लड़की सिर के बोझ जैसी है जिसे शादी कर के मां बाप अपने सिर से उतार फेंकते हैं। जीवन भर स्त्री को जिसके साथ रहना है उसे ही उसको चुनने की स्वतंत्रता नहीं दी जाती, यदि वह किसी से प्रेम करती है, फलस्वरूप समाज उसे दण्ड देता है उसका अनमेल विवाह कराकर। एक पतिव्रता स्त्री को अपने पति के प्रति सच्ची होना चाहिए, यहां वह सच बोलती है तो उसे मारा-पीटा जाता है और चरित्रहीन, हरामजादी जैसे शब्दों से प्रताड़ित कर उसे घर से निकाल दिया जाता है। परित्यक्त होकर वह स्वतंत्र जीवन जीना चाहती है पर वहां उसके रूप की समस्या आड़े आ जाती है, कोयलेवाला उसके रूप पर आसक्त था जिस कारण वह उसके साहचर्य को स्वीकार करती है पर वह भी कुछ समय बाद उसे शोषित प्रताड़ित करके छोड़ कर भाग जाता है। वह आर्थिक स्वावलंब खोजती है तो उसके अतीत का पता लगने पर शिष्ट समाज उसकी किसी भी प्रकार से सहायता करने के लिए हाथ खड़े कर लेता है। आज हर स्त्री मृणाल ही बना दी जाती है। उसकी इच्छा अनिच्छा, भावना, दुख दर्द, पीड़ा और अनुभूति को समझने की किसी ने कोशिश नहीं की। अंत मे वह ऐसी जगह जा पहुँची जहाँ किसी भी प्रकार के छल के की आवश्यकता नहीं, वह अशिष्ट समाज ही था, जिसने उसे शरण दी और उसकी चिंता की वरना शिष्ट समाज तो सदा ही उसे घृणित नज़रों से देखता रहा यहां तक कि खुद का परिवार उसे ‘कुल बोरन’ कहकर पुकारता है।

कमलेश, शोधार्थी (पीएचडी हिंदी विभाग )
दिल्ली विश्वविद्यालय

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