Ravish का प्रशंसक हूँ आलोचक नहीं…मलय नीरव

Ravish का प्रशंसक हूँ आलोचक नहीं...मलय नीरव साहित्य जन मंथन

उद्घोषणा:
रवीश का प्रशंसक हूँ,आलोचक नहीं;इसलिए तारीफ़ की मिठास अधिक हो तो बेझिझक नजर-अंदाज कर दें!!

रवीश मतलब आधा कवि-प्रेमी-पिता-पुत्र-सहपाठी-श्रोता-आलोचक-लेखक-ब्लॉगर, लेकिन पूरा पत्रकार.

लाल-पत्थर पत्रकारिता, गोदी मीडिया, वाट्सऐप यूनिवर्सिटी, लुटियन्स पत्रकारिता, जैसे लोकप्रिय उपाधि के जनक रवीश अब तक खुद उपाधि-विहीन हैं! कभी-कभी मैं रवीश के बारे में सोचता हूँ कि, शब्द में उलझता फ़िर खुद ही गलती स्वीकार शब्द को सुलझाता आग उगलता, ठंडक देता आगे बढ़ जाने वाला यह पत्रकार आखिर पत्रकार क्यों है? कितना अच्छा होता IAS बन अशोक खेमका की तरह सरकार के पैरों का फुटबॉल बन जाते.

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रुम में एक पुस्तक था “इश्क में शहर होना”, भैया लाये थे. कुछ दोस्त के मुख से भी सुना था एक कोई पत्रकार हैं जो लेखक भी बनना चाह रहे हैं, वही लिखे हैं. फ़िर भी मैं उस पुस्तक को हाथ नहीं लगाया. मैं सोचा कोई सड़कछाप टाइप लेखक होगें . आखिर हिन्दी का छात्र था , वह भी हंसराज कॉलेज(दिल्ली विश्वविद्यालय) का तो, यूँ ही कैसे पढ़ लेता किसी भी किताब को.

दिन गयी बात गयी, पुस्तक पर भी धूल आयी गयी. अचानक से एक नये युग की शुरुआत हुई, “जियो युग” की. चारों तरफ़ नेट-ही-नेट , वह भी 3G-4G वाला था. ऐसा लगा इंटरनेट के अंधकार युग से इंटरनेट के प्रकाश युग में आ गया. यही वह समय था जब धीरे-धीरे रवीश को सुनने लगा, सोचने लगा , यही वह लेखक-कम-पत्रकार-ज्यादा वाला रवीश हैं . जियो युग ने ‘रवीश-सुन’ युग में धक्का दे दिया. वैसे यहाँ स्पष्ट कर दूँ जियो युग में भी जियो का कम एयरटेल का ज्यादा उपभोग किया हूँ. इस जियो युग ने रवीश का ऐसा चस्का लगाया कि आज तक इस नशे से नहीं निकल पाया हूँ.

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बेचैन कवि सुना हूँ, बेचैन लेखक-कलाकार-दर्शक-आलोचक तक भी सुना हूँ, लेकिन पहली बार लग रहा था एक बेचैन पत्रकार को देख-सुन रहा हूँ. ऐसा लगता है जैसे हर समय कुछ नया करना चाहते हैं, चाहते हैं कि कुछ पुराना तोड़ दूँ या नया-पुराना को जोड़ दूँ ताकि कुछ हो, कुछ अलग कुछ बेतरतीब या बेचैन-सा. 

अपने व्यवसाय के प्रति सदा सजग, ईमानदार रहने वाले उस जिंदादिल इन्सान को जितना भी प्यार और सम्मान दिया जाए वो कम होगा. जिस समय में मीडिया अपने मूल्यों, विश्वसनीयता को खो चुकी है, बिक चुकी है . इन भेड़ों की झुण्ड रूपी मीडिया जब एक ही राग अलाप रही हो, कान कोई अन्य संगीत सुनने को तरस गई हो, तो याद आते हैं कर्मठ, भवोत्तेजक, रहम-दिल इन्सान रवीश कुमार. आज जब की पूरा तंत्र मिलकर किसी प्रोपेगेंडा के तहत काम कर रही हो तो उसके खिलाफ अपनी आवाज़ उठना, विश्वसनीय तथ्यों से आमजन को रु-ब-रु कराना, उन्हें प्रेरित करना, बेबाकी के साथ अपने विचारों को प्रकट करना, आम जनता की समस्याओं से व्यथित हो उनकी आवाज़ बनना बहुत ही असाधारण है तथा हर किसी की बस की बात नहीं है, इतनी साहसी काम रवीश ही कर सकते हैं.

“ईमानदारों का कोई ईको-सिस्टम नहीं है”,कहने वाले रवीश कुमार जानते हैं कि ईमानदार को हर दिन, बार-बार इम्तिहान देना पड़ता है. वहीं बेईमान इम्तिहान से परे हवाईयान में उड़ता रहता है, फ़िर भी रवीश इसी ईमानदारी की रास्ता पर चले. क्या हुआ अगर सिविल सेवक न बन सके, न ही अंग्रेजी को भोजपूरी की तरह बोल पाये और न ही बिहारी आर्यभट्ट की तरह गणित को आत्मसात कर पाये, लेकिन अपना ईमान तो नहीं बेचे. यही “रवीशी-ईमान” ने देश को पत्रकारिता का कोहिनूर दिया है।

जो उन्हें विरोधी, विद्रोही, सरकार विरोधी समझते, मोदी विरोधी समझ देशद्रोही समझने तक की भी जहमत उठाते हैं,उनसे मैं पूछना चाहूंगा कि कोई इतनी बड़ी शख्सियत का इन्सान, जो सुप्रसिद्ध है, काबिलियत से परिपूर्ण है.जो चाहे तो अपनी परिवार के साथ आनंदपूर्वक, ऐशो-आराम की जिन्दगी जी सकता है, अपनी लोकप्रियता का फायदा उठा सकता है फिर क्यों अपनी जिन्दगी दांव पर लगा मारा-मारा फिरता है,हमारी समस्याओं से क्यों व्याकुल हो खुद को यातनायें देता है ? क्यों आशावान हो युद्धरत (अपने काम में) रहता है ? क्यों दूसरे के दुख को अपना मानता है ?क्यों हमारे लिए चीखता-चिल्लाता, असंतुष्ट रहता है?क्यों हमारे देश की भविष्य को लेकर चिंतित और सजग है ?

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क्या रवीश ‘नकारात्मक’ हैं ? नकारात्मक सकारात्मक  होने की पहली सीढ़ी है. सिर्फ़ सकारात्मक होना कोरा सपना है,वही 15 लाख वाला सपना. लेकिन रवीश के सवाल को नकारात्मक कहना एक सोची-समझी साजिश के तहत सवाल की महिमा को कम करने का एक छद्म प्रयास भर है.कभी रवीश ने ही कहा था,’मर्डर को मर्डर न कहें तो क्या कहें.’ वे कहते हैं ” निगेटिव वो होता है जिसमें आप झूठ को दबाकर सच साबित करने की कोशिश करते हैं.जो लोग कहते हैं मैं निगेटिव हूँ , दरअसल वो बर्दाश्त नहीं कर पाते कि मैंने एक और झूठ पकड़ लिया.” 

जो ना मीडिया ट्रायल करता हो,ना ही किसी की निजता का हनन, ना ही पेड पत्रकारिता में यकीन रखता हो, साथ-ही-साथ अपनी रोजी-रोटी का माध्यम टेलीविजन के बहिष्कार की बात करता हो, फ़िर तो वह कुछ न कुछ अलहदा होगा ही.जिसकी जिन्दगी में करोड़ों “फैन” हो, हालांकि वह खुद का यहाँ तक किसी भी नेता का फैन बनने से मना करता है, वह आखिर खुद पर इतना कम विश्वास क्यों करता है ? यह भी समझ से परे है. भावुक है, जल्दी घबरा जाता है लेकिन हार नहीं मानता है, जीवट इन्सान है. 

डर लगता है लेकिन डर कर भागते नहीं हैं,आज की पत्रकारिता से निराश हैं लेकिन अपनी पत्रकारिता-धर्म से हटते नहीं,पैसा-पद की चकाचौंध से भरी दुनिया में 20 साल से एक ही चैनल पर अटके हैं तो क्या रवीश कुमार ‘वैरागी कुमार’ हैं! या हर चीज की कीमत होती बस खरीददार होने चाहिए तर्ज पर क्या आज तक इनको अपना खरीददार नहीं मिला ? चाहे ये ‘वैरागी रवीश’ हैं या ‘कर्मयोगी रवीश’, हैं तो हमारा हम सबका.ये बेजुबां के जुबां हैं,सहमी मौन की पुकार हैं.

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रवीश कहते हैं कि ‘इन्फोर्मेशन जितना प्योर होगा लोकतंत्र उतना ही श्योर होगा’. वह मीडिया की TRP के खेल की उपेक्षा कर कहते हैं कि” मैं दुनिया का पहला जीरो TRP एंकर हूँ.”उनका कहना है कि,”पत्रकार को निष्पक्ष होने के बदले सत्ता का विपक्ष बनना चाहिए।” पत्रकार ऐसा हो जो जन की बात करे न कि सत्ता के मन की बात करे। रवीश आकाश बनर्जी को दिए इंटरव्यू में कहते हैं कि,’ वो अभिशप्त हैं उनकी आवाज उठाने के लिए जो उनसे नफ़रत करते हैं।’ 

क्या है रवीश में जो उन्हें खास होते हुए भी आम(वो काट कर खाने वाला आम नहीं..!)बनाता है? खुद का अनुभव कहता है(हालांकि यह अनुभव काल्पनिक है,जो उन्हें देखते-सुनते बना है) कि  वो “पॉकेट-पत्रकार” हैं!जब चाहो निकाल कर अपनी व्यथा बता दो और वह उसे सबको सुना देंगे.

रवीश की रिपोर्ट हो या प्राइम टाईम या फ़िर देस की बात हर जगह वही चिट्ठी छाटने वाला रवीश दिखते हैं, जमीन से जुड़े हुए, जमीनी मुद्दे उठाते हुए और नभचरी नेता को धरती का दर्शन कराते हुए. यहां(रवीश के कार्यक्रम में) हमें उनमें एक शानदार शब्दकार-चित्रकार, परसाई जी वाला व्यंग्यकार के साथ-साथ आजकल वाला रोस्टर भी दिखता है.यह बंदा कवि-हृदय-सम्राट भी है. इनकी प्रस्तुति देख ऐसा लगता जैसे यह अपना भोगा-यथार्थ बता रहे हैं. कोरोना-काल में शुरू हुआ कार्यक्रम ‘देस की बात’ में मजदूर-प्रवासी के पैदल-पलायन को अपनी मार्मिक अभिव्यक्ति से देशवासी को रू-ब-रू कराये हैं, जिसमें एक मजदूर का दर्द-घुटन-बेबसी सब छलक आया है.

अरे भाई,इनका ‘प्राइम टाईम’ देखो तो उसमें विविधता में एकता, एकता में अनेकता, देश का हर रंग-रुप दिख जाता है.कभी स्क्रीन को काला कर ‘मीडिया की कालिमा, अन्धेरगर्दी’ दिखाते तो कभी रशियन बने ट्रोल आर्मी का नाटकीय संवाद(NDTV बैन होने पर बनाया गया ‘सवाल पर सवाल है’ प्राइम टाईम).ऐसा लगता है जैसे इनको बनी बनायी सीधी सड़क पर चलना पसंद नहीं है. खुद से अपनी मार्ग बनाते वह भी टेढ़ी-मेढ़ी, उबड़-खाबड़ युक्त ताकि कोई दूसरा इस रास्ते पर चल न सके. वैसे सबको बोलते भी रहते हैं,”रवीश मत बनना”. इनका ‘नौकरी सीरीज’ पर किया हुआ प्राइम टाईम की तारीफ़ मैं क्या करुँ, यह खुद ही हर जगह करते रहते हैं. वैसे यह सीरीज “गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड” के योग्य है. वैसे अब तक यह उसमें दर्ज नहीं हुआ है, इसके लिए कभी-कभार उदास हो जाता हूँ, लेकिन फ़िर यह सोचकर तसल्ली मिल जाती है कि आज तक बापू को शान्ति का नोबेल पुरस्कार नहीं मिला तो इससे बापू का कद थोड़े ही छोटा हो जाता है.

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रवीश की रिपोर्ट “कापसहेड़ा:दिल्ली में बसा ‘धारावी’ ” 2014 से पूर्व मनमोहन सरकार पर किए मनमोहक-पीड़ादायी सवाल है. इनकी रिपोर्ट में भारत का स्याह चेहरा दिखता है, जिसे हर कोई(मैं से लेकर हम और हमलोग से होते राजनेता-अभिनेता सब) छिपाये रखना चाहते हैं. यही तो इन्हें भीड़ में अकेला लंबा खड़ा दिखाता है, जिसकी रीढ की हड्डी अभी भी सीधी है.आज के लोकतांत्रिक दौर में जब सत्ता से असहमति भरे स्वर में बोलना कठिन होता जा रहा है तब एक 6 फीट के पत्रकार का इस तरह बेबकी से बोलना एक साहस,उम्मीद देता है.भारत को उसकी खूबी-खामियों के साथ देखने के पैरोकार रवीश लोकतंत्र के साथ-साथ पत्रकारिता के भी सबल स्तंभ बनके उभरे हैं.           

किसान के रवीश, छात्र के रवीश, बेरोजगार के रवीश, रोजगार के रवीश, महिला के रवीश, पुरुष के रवीश लेकिन “रवीश” के कौन रवीश? क्या रवीश अकेले हैं या अकेलापन उनका हथियार है?                

अन्त में यही कहना चाहूँगा,रवीश का मतलब है, “बोलना ही है”(यह उनकी एक किताब का शीर्षक है जो पूरी तरह उनको व्याख्यायित करता है)। जिस तरह नदी की प्रकृति सतत बहना है,उसी तरह इनकी प्रकृति सतत बोलना है।यही सतत-सत्य-बेबाक-बिना लाग लपेट के सीधे-सीधे बोलना ही रवीश को  “रेमॉनी रवीश” बनाया है.

मलय नीरव
पूर्व छात्र, दिल्ली विश्वविद्यालय

10 Replies to “Ravish का प्रशंसक हूँ आलोचक नहीं…मलय नीरव”

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