लाल पान की बेगम

लाल पान की बेगम साहित्य जन मंथन

सामान्य परिचय-

आज आठ वर्षों के बाद फणीश्वरनाथ रेणु रचित ‘लाल पान की बेगम’ से दो चार हो रहे थे।यह कहानी ग्रामीण पृष्टभूमि पर लिखी मार्मिक कहानियों में से एक हैं।यह 1956 में लिखी गयी थी।इस कहानी के मुख्य पात्रा ‘बिरजू की माँ’ है।इनके अलावा बिरजू,बिरजू के बप्पा,चम्पिया,मखनी फुआ,जंगी की पुतोहू, रँगी,सहुआइन,लरेना की बीवी और राधे की बेटी आदि हैं।यह कहानी एक गाँव में बसे ग्रामीण स्त्रियाँ के नोकझोंक,उनकी छोटी लालसा,उनके कड़े तेवर,उनके कटु व्यंग्य,उनकी तक्षण खुशियाँ आदि की बानगी पेश करती है।इस कहानी को मैंने सर्वप्रथम टी.पी.कॉलेजिएट हाई स्कूल, मधेपुरा में पढ़ा था।इसे पढ़ाने वाले डॉ. सुरेश कुमार भूषण सर थे,जिनके छत्रछाया में मुझे हिंदी पढ़ने की जिज्ञासा जागृत हुई थी।वह आज भी जीवित है।

रेणु का महत्व-

फणीश्वरनाथ रेणु के महत्ता पर विचार करते हुए कमलेश्वर ने लिखा कि “बीसवीं शताब्दी का यह संजय रूप,गंध,स्वर,नाद,आकार और बिंबों के माध्यम से ‘महाभारत’ की सारी वास्तविकता, सत्य,घृणा,हिंसा,प्रमाद,मानवीयता,आक्रोश और दुर्घटनाएँ बयान करता जा रहा है।उसके ऊँचे माथे पर महर्षि वेदव्यास का आशीष अंकित है।”
इससे स्पष्ट है कि रेणु बीसवीं शताब्दी के संजय थे।उनकी कहानी में ग्रामीण मनुष्यों के पसीने के गंध,पशु पक्षी के गंध,आसपास के तालाब पोखर के गंध,हाशिये पर जा चुके लोगों के गंध,उनके रूप,उनके सशक्त स्वर समाहित हैं।उनकी कहानियाँ सत्य, घृणा,हिंसा,प्रमाद,मानवीयता,आक्रोश और अनेक दुर्घटनाओं के दर्द बयाँ करती है।इसलिए अज्ञेय ने उन्हें “धरती का धनी” कहा, तो निर्मल वर्मा ने “बिहार के छोटे भूखंड की हथेली पर समूचे उतरी भारत के किसान की नियति रेखा को उजागर” करने वाला कहा है।

रेणु की परंपरा

रेणु की कहानी परंपरा प्रेमचंद की विकसित परंपरा है।सच कहिए तो प्रेमचंद के बाद दूसरे बड़े कहानीकार रेणु ही हैं,जिन्होंने भारतीय जनमानस के हृदय में स्थान बनाने में सफल हुए हैं।इस बात की प्रमाण डॉ. शिवकुमार मिश्र के आलोच्य निबंध ‘प्रेमचंद की परंपरा और फणीश्वरनाथ रेणु’ देती है।उन्हीं के शब्दों में-
“रेणु हिंदी के उन कथाकारों में हैं,जिन्होंने आधुनिकतावादी फैशन की परवाह न करते हुए,कथा साहित्य को एक लंबे अर्से के बाद प्रेमचंद की उस परंपरा से फिर जोड़ा जो बीच में मध्यवर्गीय नागरिक जीवन की केन्द्रीयता के कारण भारत की आत्मा से कट गयी थी।”यह उक्तियाँ सिद्ध करती है है कि रेणु पुनः प्रेमचंद के कथा साहित्य परंपरा को जीवंतता प्रदान की।यही जीवंतता रेणु को रेणु बनाता है।

मूल कहानी-

‘लाल पान की बेगम’ की शुरुआत “क्यों बिरजू की माँ,नाच देखने नहीं जाएगी क्या?” वाक्य से होती है और अंत “बिरजू की माँ के मन में अब और कोई लालसा नहीं।उसे नींद आ रही है।”वाक्यों पर खत्म होती है।पहला वाक्य संदेह और प्रश्न करता है ,जबकि दूसरे वाक्य तृप्ति या खुशियाँ का अहसास कराती है।अर्थात यह कहानी प्रश्नों से लेकर खुशियों तक खूबसूरती पेश करती है।
इस कहानी के पात्रों का उधेश्य ‘बलरामपुर’ नाच देखने जाने का है।इसके लिए अनेक तैयारियाँ हो रही है।बिरजू की माँ उबाल रही है और कुढ़ रही है,क्योंकि बिरजू शकरकंद के लिए तमाचे खाकर मिट्टी में लोट पोट हो रहा है।उनका उम्र सात साल है।चम्पिया सहुआइन के यहाँ से छोवा गुड़ लाने गयी है।बागड़ बकरे के देह में मछी लगी हुई है।वह मेमियाँ रही है।इस मिमियाहट से चिढ़ कर वह एक ढेला उठाकर बागड़ बकरे मारना ही चाहती है कि मखनी फुआ की आवाज कानों में तैर जाती है।यह आवाज है-“क्यों बिरजू की माँ, नाच नहीं देखने जायेगी क्या?” इस पर बिरजू की माँ की तीखी प्रतिक्रिया होती है कि “बिरजू की माँ के आगे नाथ और पीछे पगहिया न हो तब न,फुआ?”यह लोकोक्तियाँ ग्रामीण समाज में धड़ल्ले से सुनी जा सकती है।

व्यंग्य बाण-

इस प्रकार से कहानी आगे बढ़ती जाती है।मखनी फुआ को बिरजू की माँ का जवाब हृदय को छेद कर दिया है।वह पानी भरने जाने पर अपनी सहेलियों से इस बात को सुनाकर उनकी सांत्वना पाना चाहती है।वह कहती है कि “जरा देखो तो बिरजू की माँ को ! चार मन पाट का पैसा क्या हुआ,धरती पर पाँव ही नहीं पड़ते!निसाफ करो!”यह उक्तियाँ इस बात की प्रमाण है कि रेणु ग्रामीणों स्त्रियों के झगड़े,व्यंग्य और नोकझोंक को बहुत पास से देखे थे।उनके इस व्यंग्य कला के रेणु कुशल कलाकार थे।इस प्रकार की अनेक नोकझोंक और अनेक हृदय भेदने वाली व्यंगों का प्रयोग रेणु ने इस कहानी में किया है।इस संदर्भ में जंगी की पतोहू और बिरजू की माँ के व्यंग्य शास्त्र देखी जा सकती है-
“बिरजू की माँ-
जीभ की झाल को गले में उतारकर बिरजू की माँ ने अपनी बेटी चम्पिया को आवाज दी-“अरी चिम्पिया या -या ,आज लौटे तो तेरी मुड़ी मरोड़कर चूल्हें में झोंकती हूँ।दिन रात बेचाल होती जाती है।…गाँव में भी तो अब ठठेर-बाइसकोप का गीत गाने वाली पतुरिया पुतोहू सब आने लगी हैं।कहीं बैठके ‘बाजे न मुरलिया’ सीख रही होगी ह-र-जा-ई-ई।अरी चम्पि-या-या-या!”
जंगी की पुतोहू-
“जंगी की पुतोहू ने बिरजू की माँ की बोली का स्वाद लेकर कमर पर घड़े को संभाला और मटककर बोली-“चल दिदिया,चल!इस मुहल्ले में लाल पान की बेगम बसती है!नहीं जानती,दोपहर-दिन और चोपहर-रात बिजली की बत्ती भक भक कर जलती है!” ऐसे स्थानीय शब्दों की सुंदरता को बिना सुने,बिना पढ़े,बिना जाने,बिना झेले कौन प्रयोग कर सकता है?दलित विमर्श और स्त्री विमर्श इसी की वकालत करती है।ऐसे शब्दों के माहिर स्थानीय कलाकार ही हो सकते हैं,जो उस परिवेश में अपना जीवन खपाया है।

माँ बाप के तनाव के शिकार बच्चे:-

अनेक बार बच्चे माँ बाप के तनाव और क्रोध के शिकार होते हैं।उनकी झुंझलाहट,उनकी खींझ,उनके तनावपूर्ण रवैये के शिकार खासकर बच्चे होते हैं।इसकी प्रमाण कहानी के प्रारंभ में ही मिल जाती है।जैसे बिरजू की माँ द्वारा बिरजू को तमाचा मारना, चम्पिया को चुड़ैल कहना,सहुआइन के दुकान से आने पर थप्पड़ जड़ देना,चम्पिया को बैठकर छिलके छिलने कहना आदि।

एक गहरी उदासी-


इस कहानी को पढ़ते वक्त एक गहरी उदासी से भी दो चार होने पड़ते हैं।बिरजू के बप्पा अपने गाँव में बैलगाड़ी माँगने गए हुए हैं।उन्हें बैलगाड़ी माँगते हुए शाम हो गयी है।उन्हें कोयरी टोले वालों ने बैलगाड़ी नहीं दी है।गाँव वालों के आंखों में पानी नहीं हैं।वे अब बैलगाड़ी के लिए मलदहिया टोली चले गए हैं।इधर बिरजू की माँ के आस पर पानी फिर गया है।उन्हें अब जरा भी आस नहीं बची है।वे ढिबरी बुझा दी है।अपने बच्चों को लेकर सो गई है।अनेक शंकाओं से घिरी हुई है।उन्हें अपने आप पर पछतावा हो रहा है।वे अपने ईश्वर के आगे वादा की गयी मन्नते न पूरा करने का अफसोस हो रहा है।ऐसे समय में उन्हें अपने सुखी और दुखी जीवन की यादें तरोताजा हो रही है।वे अपने दुखी जीवन और संघर्ष को याद करते हुए बिरजू के बाप को डाँटने वाली बात भी याद कर रही है।जैसे-
“छोड़ दो,जब ,तुम्हारा कलेजा ही थिर नहीं होता है तो क्या होगा?जोरू-जमीन-जोर के,नहीं तो किसी और के!…”
यह पंक्तियाँ साबित करती है कि रेणु अपने पात्र के हृदय में बैठकर उनसे उनके शब्दों में अपनी बात कहने की सामर्थ्य रखते हैं।यह वर्णन एक लेटी हुई चिंतित स्त्री की चित्र उभारती है।

खुशी –

इस प्रकार से कहानी विभिन्न आयामों को छूती हुई ख़ुशीहाली के चौखट तक पहुँचती है।यह कहानी का अंत भाग है।बैलगाड़ी लेकर बिरजू के बप्पा आ गए हैं।उनके साथ ही वे अपने खेतों के पंचसीस भी ले आए है।अपने पति से नाराज बिरजू की माँ पंचसीस की बात सुनकर सारे गुस्से थूक देती है।उनके मन का सब मैल दूर हो गया है।अनेक प्रकार के यहाँ तारीफे सुनने को मिलती है।पुलकित बिरजू की माँ पुनः रोटी बनाने लगती है।उनकी होंठों पर मुस्कुराहट खुलकर तैर रही है।बिरजू बप्पा उसकी ओर एकटक निहार रहा है।बच्चे के कारण मन की बात खोलते देर लग रही है।मखनी फुआ भी बुला ली गई है।सारे मतभेद भुला दिए गए हैं।ताखे पर तीन चार मोटे शकरकंद बिरजू को दे देने का आदेश मां चम्पिया को सुना चुकी है।अब चम्पिया चहक रही है।जब तक दोनों बैल दाना घास खाकर एक दूसरे की देह चाटे, तब तक में बिरजू की माँ तैयार हो गयी है।चम्पिया ने छींट की सारी पहनी है।बिरजू भी पेंट पहन चुके हैं।बिरजू की बप्पा बिरजू की माँ के सौंदर्य के कायल हो गए हैं।सिर्फ उन्हें निहार रहे हैं।एकटक देख रहा है,मानो वही लाल पान की बेगम हो।इसी प्रेम और सौंदर्य से जीवन को झाँकते हुए बैलगाड़ी निकलती हुई जंगी के घर के पास रुकती है,जहाँ जंगी की बहु रो रही है,क्योंकि नंगी बलरामपुर से अभी तक लौटा नहीं है,इसलिए वह नाच देखने नहीं जा रही है।ऐसे स्थिति में बिरजू की माँ भारतीय सभ्य नारी का परिचय देते हुए उन्हें बैलगाड़ी पर बैठाकर बलरामपुर नाच देखने ले जाती है।साथ ही यहाँ पर लरेना बीवी और सुंदरी के बेटी को भी बैलगाड़ी पर साथ लेकर चलती है।यह ग्रामीण समाज की ख़ुसूरती है,जहाँ नगरों में ढूँढने से भी नहीं मिलती है।इसी राह में “चंदा की चाँदनी” जैसी सुमधुर गीत उन कंठों से गूँजती हैं,जो कंठ कभी खुलने से आँगन में घबराती है।अनेक प्रकार के गंध बैलगाड़ी पर एकसाथ मिलकर पथ को सुगंधित कर रही है।बिरजू की माँ सचमुच “लाल पान की बेगम” लग रही है।अब उन्हें कोई आसा नहीं है।यही खुशियाँ जिंदगी की सार्थकता है।रेणु की भाषा और शिल्प से साहित्य जगत वाकिफ हैं।आंचलिक शब्दों के सशक्त प्रयोग और सटीक व्यंग्य उनकी लेखनी प्रासंगिकता है।

तेजप्रताप कुमार तेजस्वी
दिल्ली विश्वविद्यलय,दिल्ली

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