आकाशदीप और अपना-अपना भाग्य कहानी की समीक्षा

आकाशदीप और अपना-अपना भाग्य कहानी की समीक्षा साहित्य जन मंथन

आकाशदीप

हिंदी गद्य विधाओं में ‘कहानी’ एक महत्वपूर्ण और सशक्त विधा बन कर उभरी । आज के वर्तमान समय काफी तेज गति से भाग रही है। दुनिया 5g- 6g की खोज में जुटी है।  ऐसे परिस्थितियों में साहित्य के अन्य विधा जैसे उपन्यास, नाटक आदि सामान्य जनमानस में एक उबाऊपन लाती हैं, वहीं अपनी सूक्ष्मता और रोचकता के कारण कहानियों की मांग सर्वाधिक है। ‘अज्ञेय’ जी के अनुसार- “कहानी एक सूक्ष्मदर्शी यंत्र है जिसके नीचे मानवीय अस्तित्व के दृश्य खुलते हैं।” हिंदी कहानी की विकास यात्रा लगभग 1900ई० के आसपास मानी जाती है। हिंदी कहानी की विकास यात्रा का अध्ययन करने के लिए हम कथा सम्राट प्रेमचंद को केंद्र में रख कर उसे चार भागों में बाँट सकते हैं-१ प्रेमचंद पूर्व कहानी ।२ प्रेमचंद समकालीन कहानी ।३ प्रेमचन्दोत्तर कहानी ।४ नई कहानी ।यहाँ इन सब युगों की विवेचना पर ध्यान न दे कर सीधे अपने आलोच्य कहानी और उसके कहानीकार की बात करेंगे, यही उचित होगा।प्रेमचंद जी से पहले हिंदी कहानी का कोई सशक्त रूप नहीं था, किंतु अपवाद के तौर पर ‘गुलेरी जी’ और ‘प्रसाद जी’ की कहानियों को लिया जा सकता है। हमारे आलोच्य कहानी ‘ आकाशदीप’ जयशंकर प्रसाद की कहानी संग्रह ‘आकाशदीप’ की पहली कहानी है। जयशंकर प्रसाद एक महान साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं।

कथाकार का परिचय:- जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी 1889, बनारस (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। हिंदी साहित्य जगत में प्रसाद, एक कवि, नाटककार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार के रूप में याद किए जाते हैं। प्रसाद , हिंदी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। हम यहाँ प्रसाद जी को एक कथाकार के रूप में समझने की चेष्टा करेंगे। कथाकार के रूप में उनकी पहली कहानी ‘ग्राम’ ‘इंदु’ पत्रिका में ‘ सन्‌ 1912 ई० में प्रकाशित हुई थी। प्रसाद जी उन्नत इतिहास को लेकर आगे बढ़ते हैं, तथा उस इतिहास को वर्तमान के साथ ऐसे घोल- मोल देते हैं जिसका अमिट छाप पाठकों पर छूटता है। प्रसाद की कहानियों में अनुभूति की तीव्रता, काव्यात्मक, प्रेम चित्रण, प्रकृति चित्रण, कल्पना आदि का सुंदर समावेश देखने को मिलता है। इनकी मृत्यु 15 नवम्बर 1937, वाराणसी में हुआ। हिंदी साहित्य जगत में प्रसाद जी का योगदान हमेशा अविस्मरणीय रहेगा।
आलोच्य कहानी : आकाशदीप का परिचय:– हमारे आलोच्य कहानी ‘आकाशदीप’ प्रेम और कर्त्तव्य के ऊहापोह के बीच उलझी हुई एक ऐसी नायिका की कहानी है जो अन्तोगत्वा अपने प्रेम को पीछे छोड़ कर्तव्य को महत्ता देती दिखाई पड़ती है। ये कहानी निरन्तर चलती रहती है, जो अपने कौतूहलता के कारण पाठकों को अंत तक पकड़ी रहती है। कहानी को 7 भागों में विभक्त किया गया है।अब हम अपने आलोच्य कहानी को अलग- अलग भागों को समझने की चेष्टा करेंगे।कहानी के पहले भाग की प्रारंभ दो बंदी के वार्तालाप से होती है, जिसमे  से एक का बंधन शिथिल हो गया है, और वह अपने साथी के सहायता से बन्धन मुक्त होना चाहता है। एक दूसरे की सहयोग से दोनों बंदी का बंधन खुल जाता है। हर्सोल्लास होकर दूसरे बंदी ने पहले बंदी को गले लगा लेता है, अचानक उसे महसूस होता है कि वह एक स्त्री है। वह पीछे हट जाता है और उससे पूछता है – “तुम  स्त्री हो”। इस पर स्त्री ने जवाब दिया – “क्या स्त्री होना पाप है?” इस जवाब के पीछे कहानीकार का गहरा उद्देश्य व्यक्त होता है। अनेक सामाजिक कुरीतियों की जकड़न में जकड़ी स्त्री को न स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार है, न स्थितियों पर विचार करने की क्षमता. अशिक्षा के कारण स्त्री हमेशा पुरुष के मुँह तककी बनी रहती। जिस समय प्रसाद कहानी लिख रहे थे वो दौर था , अंग्रेजों के साथ संघर्ष का। आजदी की लड़ाई अपने चरम पर थी, और आजादी के इस लड़ाई में आधी आबादी यानी कि स्त्री की योगदान काफी महत्व रखती है। पुरूष प्रधान समाज में हमेशा से नारी जाति के प्रति उपेक्षा की भाव रहा है। प्रसाद जी जानते थे कि इस आधी आबादी के योगदान के बिना स्वतंत्रता का सपना अधूरा रहेगा। इसलिए उन्होंने इस कहानी में अपने पात्र के मुख से ये बात कहलाते हैं- ” क्या स्त्री होना पाप है ?”
इसी बीच आंधी आ जाती है। तमाम संघर्ष के साथ दोनों स्वतंत्र हो जाते हैं।कहानी के दूसरे भाग में बुद्धगुप्त और नायक के बीच द्वंद होता है , जिसमें बुद्धगुप्त इस द्वंद को बड़े निपुणता के साथ जीत जाता है। अब वह उस नौका का स्वामी बन गया।तीसरे भाग में पात्रों की आपस मे परिचय- पात होती है । वो लोग एक दूसरे के बंदी होने के कारण पूछते हैं। इसी बीच चंपा को पता चलता है कि उसके पिता के मृत्यु का कारण बुद्धगुप्त ही है। वह मन ही मन एक उलझन में फंस जाती है। क्योंकि कहीं न कहीं उसके मन मे बुद्धगुप्त के प्रति झुकाव होने लगा था। इसी बीच नाविक के द्वारा घोषणा किया जाता है कि वो एक द्वीप के पास पहुँच चुका है। सभी नाव से उतरते है । बुद्धगुप्त इस अनजान द्वीप का नाम ‘चम्पाद्वीप’ रखता है।चौथे भाग में आगे की कहानी को सीधा पाँच वर्ष आगे कर के दिखाया गया है। जिसमें चम्पा एक आकाश-दीप की डोरी को इस कामना के साथ ऊपर खींच रही है कि यह आकाश- दीप नक्षत्रों के साथ हिलमिल जाए। किन्तु ऐसा होना सम्भव नहीं है। चम्पा अपने अन्तर्मन की कल्पना ने खो जाती है। बुद्धगुप्त, चम्पा से दीप जलाने का कारण जानना चाहता है। चम्पा कहती है कि ये दीप किसी के आने की आशा में उसके मार्ग प्रशस्त करने के लिए जाला रही है। वो कहती है कि जब मेरे पिता भी समुद्र में युद्ध के लिए जाते थे तो मेरी माँ हर शाम दीप टांग देती थी। और भगवान से प्रार्थना करती की । जब मेरे पिता लौट कर आते तो वह कहते कि , साध्वी तेरे प्रार्थना से भगवान ने भयानक संकट से मेरी रक्षा की है। बुद्धगुप्त का यह कहना कि तुम उसके लिए दीप जला रही हो जिसे अब तुम भगवान मान चुकी हो। चम्पा के मन को व्यथित कर देता है , वह बुद्धगुप्त से कहती है कि तुम भले ही दास्यु -वृत्ति छोड़ दिए पर आज भी तुम्हारे मन मे अकरुणा है। मेरे आकाशदीप पर व्यंग करते हो। और वह फिर बुद्धगुप्त को अपने अतीत की याद दिलाती है। जब बंदी से आजाद हो कर वे लोग यात्रा कर रहे थे। ‘उस समय किस प्रकार हम लोग उस अंधकार में एक रोशनी के लिए व्याकुल हो गए थे’। बुद्धगुप्त उसे सोने के लिए कह कर वहां से चला जाता है।कथा के पांचवें भाग में चम्पा एक जंगली लड़की जया के साथ नाव पर घूमने निकलती है । वह जल के शीतलता, सुंदरता से प्रभावित हो कर मन ही कल्पना में खो जाती है। चम्पा की दर्द, पीड़ा सिंधु में विलीन हो गया।  पीछे मुड़ कर देखती है की बुद्धगुप्त आ रहा है। बुद्धगुप्त अपना हाथ फैला कर चम्पा के तरफ बढ़ता है दोनों एक बजरे पर बैठ जाते हैं। चम्पा आज अपने प्रतिशोध के प्रतीक कृपाण को समुद्र में फेंक देती है। बुद्धगुप्त कहता है – ”तो आज से मैं विश्वास करूँ, क्षमा कर दिया गया?” इस बात पर चम्पा कहती है-” ‘विश्वास? कदापि नहीं, बुधगुप्त! जब मैं अपने हृदय पर विश्वास नहीं कर सकी, उसी ने धोखा दिया, तब मैं कैसे कहूँ? मैं तुम्हें घृणा करती हूँ फिर भी तुम्हारे लिए मर सकती हूँ। अंधेर है जलदस्यु। तुम्हें प्यार करती हूँ।” और वह रो पड़ती है।बुद्धगुप्त आशा की एक स्वप्न दिखा कर उसे शांत करता है।छठे भाग में चम्पा के द्वारा बनाए गए दीप- स्तम्भ का महोत्सव हो रहा है। चम्पा पूछती है क्या हो रहा है इस पर जया ने जवाब दिया कि आज रानी का विवाह है। चम्पा बुद्धगुप्त से पूछती है – “क्या यह सच है ?” बुद्धगुप्त कहता है – “यदि तुम्हारी इच्छा हो तो हो सकता है।”चम्पा यह मानती आ रही है कि बुद्धगुप्त ने ही उसके पिता को मारा है।  बुद्धगुप्त के द्वारा सफाई देने में बाद भी चम्पा नहीं मानती। बुद्धगुप्त चम्पा के पैर पकड़ कर कहता है – “चंपा, हम लोग जन्मभूमि- भारतवर्ष से कितनी दूर इन निरीह प्राणियों में इंद्र और शची के समान पूजित हैं। स्मरण होता है वह दार्शनिकों का देश! वह महिमा की प्रतिमा! मुझे वह स्मृति नित्य आकर्षित करती है; परंतु मैं क्यों नहीं जाता? जानती हो, इतना महत्व प्राप्त करने पर भी मैं कंगाल हूँ! मेरा पत्थर-सा हृदय एक दिन सहसा तुम्हारे स्पर्श से चंद्रकांत मणि ही तरह द्रवित हुआ।”यहाँ पर प्रसाद में अपने देश के स्वर्णिम अतीत का वर्णन करते हैं, परतंत्र भारतवासी को उसके अतीत से रूबरू करवाने का प्रयास किए हैं। भारतवासी  के ह्रदय में अपने देश के अतीत का स्मरण करवाते हुए राष्ट्रीयता की भाव को जगाने का प्रयास प्रसाद करते हैं। चम्पा इसी द्वीपवासियों के सेवा में अपना जीवन व्यतीत करना चाहती है, चम्पा कर्तव्य के सामने प्रेम का बलिदान कर देती है।सातवें भाग में प्रसाद ने कहानी को एक सुंदर अंत दिए हैं जो पाठक के ह्रदय को झझकोर देता है। ये प्रसाद की कला थी जिस कारण यह कहानी और इसकी कथावस्तु काल्पनिक होते हुए भी अपने पाठक को प्रारंभ से अंत बांधे हुए रखती है । उसके मन मे कौतूहलता और उत्सुकता जगाए रखती है।इस कहानी को पढ़ते ही अचानक ‘ उसने कहा था’ की याद आ जाती है। गुलेरी जी के ‘लहनासिंह’ और प्रसाद के ‘चम्पा’ दोनों, मुझे एक समान से लगते है बस अंतर इतना है कि, लहनासिंह का प्रेम आत्मबलिदान के जरी आनंद की अनुभूति तक पहुँचता है। आकाशदीप में ये त्याग, बलिदान अवश्य है परंतु अपने अन्तर्द्वन्द और मन के विकार के कारण चम्पा उस मुक्ति तक नहीं पहुँच पाती जहां तक लहनासिंह पहुँच सका।

भाषा- शैली:-

प्रसाद मुख्य रूप से कवि थे। उन्होंने कामायनी जैसे महाकाव्य लिखा। जगह – जगह प्रसाद की भाषा कवित्वमय हो गई है। जिसे पढ़ते समय  पाठक के मन में एक चित्र उभर जाती है। मैं यहाँ कुछ उदाहरण के साथ स्पष्ट करना चाहता हूँ:-“अनंत जलनिधि में उषा का मधुर आलोक फूट उठा।”
“शरद के धवल नक्षत्र नील गगन में झलमला रहे थे। चंद्र की उज्ज्वल विजय पर अंतरिक्ष में शरदलक्ष्मी ने आशीर्वाद के फूलों और खीलों को बिखेर दिया।”
“वरूण बालिकाओं के लिए लहरों से हीरे और नीलम की क्रीडा शैल-मालाएँ बन रही थीं ।”
“सामने शैलमाला की चोटी पर हरियाली में विस्तृत जल-देश में नील पिंगल संध्या, प्रकृति की सहृदय कल्पना, विश्राम की शीतल छाया, स्वप्नलोक का सृजन करने लगी।उस मोहिनी के रहस्यपूर्ण नीलजाल का कुहक स्फुट हो उठा। जैसे मदिरा से सारा अंतरिक्ष सिक्त हो गया। सृष्टि नील कमलों में भर उठी।” आदि।
कथा में ऐसा मधुर , कवित्वमय भाषा, अलंकार का प्रयोग प्रसाद जैसे महान कवि हृदय ही कर सकता है।तत्सम शब्द की बहुलता भी दिखाई पड़ती है, जो प्रसाद की रचना में यत्र- तत्र देखा जा सकता है।
प्रकृति चित्रण:-छायावाद युग के लेखन में प्रकृति चित्रण काफी व्यापक स्तर पर होता। हिंदी के महान आलोचक ‘डॉ० रामकुमार वर्मा’ ने छायावाद को प्रकृतिवाद की संज्ञा दे दी है। छायावादी कवि प्रकृति के गोद में बैठ कर अपने लेखन की उड़ान पर निकलते है। हमारे आलोच्य कहानी ‘आकाशदीप’ में भी प्रसाद ने अनेक जगहों पर प्रकृति का चित्रण मार्मिकता के साथ किए हैं । प्रसाद जी ने समुद्र, आँधी, द्वीप आदि के माध्यम से प्रकृति का सुंदर रूप उभारें हैं। जैसे-“सुनहली किरणों और लहरों की कोमल सृष्टि मुस्कराने लगी।”
“सामने जल-राशी का रजत श्रृंगार था। वरूण बालिकाओं के लिए लहरों से हीरे और नीलम की क्रीडा शैल-मालाएँ बन रही थीं। ” आदि।
देशकाल:-‘आकाशदीप’ कहानी की रचना ऐसे समय की गई जब आवश्यकता थी कि भारतवासी अपने स्वार्थ को पीछे छोड़ देश के स्वतंत्रता में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दे। इस कहानी को लिखते समय प्रसाद जी के मन मे एक ओर जहाँ देश की स्वतंत्रता की भाव थी वहीं दूसरी ओर स्त्री जाति के स्वतंत्रता, जो पुरूष प्रधान समाज ने कब्जा कर रखा है, उससे मुक्ति। चम्पा का यह कथन – ”मुझे इस बंदीगृह से मुक्त करो।” इस बात को पुष्ट करती है कि कहानी लिखते समय कहीं न कहीं प्रसाद के मन मे नारी स्वतंत्रता थी। 
#नारी चित्रण:-छायावादी युग में नारी के प्रति उदात्त दृष्टिकोण रखा गया है।  रीतिकाल में जहाँ नारी मात्र भोग्या बन कर रह गई थी, वहीं छायावाद युग आते- आते नारी को गरिमा प्रदान करते हुए, नारी के स्थिति का यथार्थ चित्रण किया गया है। हमारे आलोच्य कहानी ‘आकाशदीप’  में भी नारी का रूप एक आदर्श स्थापित करती नजर आ रही है, जो अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए न झुकी और न कभी विचलित हुई। यहाँ ‘प्रसाद’ की नारी भाव को और स्पष्ट करते हुए उनके कालजयी रचना ‘कामायनी’ के इस पंक्ति को उदब्द्ध करने की इच्छा हुई। “अवयव की सुंदर कोमलता, लेकर मैं सब से हारी हूँ।”एक पुरूष के कलम से इससे बेहतरीन क्या लिखा जा सकता है। ये क्षमता केवल प्रसाद में थी। 
#उद्देश्य :-वैसे तो हर लेखन के पीछे कोई न कोई उद्देश्य अवश्य रहता है, परन्तु प्रसाद और उनके युग के साहित्य का उद्देश्य काफी व्यापक रहा है।  प्रसाद ‘आकाशदीप’ कहानी का उद्देश्य एक तो देश की स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व त्याग कर देने के लिए उत्साहित करना था। दूसरी प्रेम के द्वारा, दस्यु- वृत्ति का त्याग करवाना तथा उस कठोर हृदय में कोमलता का भाव उत्पन्न करना। यहाँ मैं एक बात कहना चाहता हूँ। मुझे लगता है कि यहाँ बुद्धगुप्त अंग्रेज का प्रतीक है जिसके अंदर मार- काट करके राज करने जैसी प्रवृति है और चम्पा भारतवासी के सहृदय की प्रतीक, जो इस कठोर हृदय में प्रेम को जगाती है।यहाँ गाँधी जी का अहिंसा का सिद्धांत भी स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है, जिसके  बदौलत गाँधी जी ने अंग्रेज जैसे दमनकारी को परास्त करने में सक्षम हुए ।
#शीर्षक की सार्थकता:-साधारणतः ‘आकाशदीप का अर्थ बाँस के सिरे पर बाँधकर जलाया जानेवाला दीया होता है। इस तरह के दीप किसी द्वीप के निवासी के द्वारा जलाया जाता है ताकि उस की रोशनी दूर से दिखाई दे और भूले- भटके नाविक उस प्रकाश को देख कर रास्ता का अनुमान लगा सके। या फिर उसके मन मे आशा की भाव आए कि इस अथाह सागर के बीच इस द्वीप पर कोई मनुष्य रहता है। हमारे आलोच्य कहानी के शीर्षक की महत्ता को इस बात से समझा जा सकता है कि इसी के नाम पर प्रसाद के कहानी संग्रह का नाम रखा गया। ‘आकाशदीप’ कहानी संग्रह में कुल 19 कहानी है। कहानी शुरू से अंत तक सागर और द्वीप के आसपास ही बिखरी हुई है। ‘आकाशदीप’ आशा की रोशनी का प्रतीक है। चम्पा जिसे जलाना अपना कर्तव्य समझती है। क्योंकि जब वह छोटी थी तो अपने माँ  को ऐसा करते हुए देखती है। और जब वह बंदी से निकल कर उस अंधेरे में भटक रही थी तब उसे याद है कि किस प्रकार वह एक रोशनी के लिए व्याकुल हो गई थी। समग्रतः हम कह सकते है कि इस कहानी का शीर्षक काफी प्रभावी है । ‘प्रसाद’ जी ने इस पूरे कहानी की भावुक पक्ष को शीर्षक बनाया।
और अंत में हम कह सकते हैं कि प्रसाद की रचना ‘ आकाशदीप’  हर पैमाने की दृष्टि से एक सफल कहानी है, निर्विवाद रूप से प्रसाद एक श्रेष्ठ कथाकार के रूप में याद किए जाएंगे।

अपना-अपना भाग्य

“कहानी एक सूक्ष्मदर्शी यंत्र है, जिसके नीचे मानवीय अस्तित्व के दृश्य खुलते हैं।”कहानी के संदर्भ में अज्ञेय जी का यह कथन हमारे आलोच्य कहानी ‘अपना- अपना भाग्य’ के परिप्रेक्ष्य में शत- प्रतिशत सच साबित होता है। यही तो है, हमारे आलोच्य कहानी की मूल संवेदना जहाँ एक सुखी सम्पन्न वकील यह विश्वास नहीं कर पाता कि, ये लड़का वास्तव में गरीबी, मजबूरी की पराकाष्ठा से जूझ रहा है और इस कड़कड़ाती ठंड के निशा भाग रात्रि में, वस्त्र के नाम पर एक गंदी मैली कमीज लटकाए अपने भाग्य से संघर्ष कर रहा है। उसे नौकरी पे रखना तो दूर सम्वेदना के दो शब्द तक नहीं कह पाता। वहीं दूसरी ओर उस व्यक्ति को दिखाया गया है, जिसके मन मे दया की भाव तो है पर उसके बजट न गड़बड़ा जाए ,  इसलिए अपने पॉकेट में पड़े दस के नोट वह निकाल नहीं सका और उस बेसहारा बालक को अगले दिन आने का समय दे देता है। पर उसे यह नहीं पता कि उस बेबस, अभागे बालक के नियति में एक रात से ज्यादा कुछ नहीं बचा था। मानवीय दुर्बलता का ऐसा चित्रण जैनेंद्र जैसे कथाकार ही कर सकता है। ओह! कहानी पढ़ कर मैं इतना व्यथित हो गया की मैं आलोचना की क्रमबद्धता ही भूल गया। 
कहानीकार का परिचय:-हमारे आलोच्य कहानी ‘अपना-अपना भाग्य’ मनोविश्लेषणवादी कथाकार जैनेंद्र जी की है। जैनेंद्र जी का जन्म 2 जनवरी 1905ई० को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिला के अंतर्गत कौरियागंज नामक ग्राम में हुआ था। हिंदी साहित्य के इतिहास में जैनेंद्र एक उपन्यासकार, कहानीकार के रूप में उभरे। इन्होंने आठ उपन्यास लिखे। परख , सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, इनके चर्चित उपन्यास हैं। हिंदी कहानी विकास यात्रा में ये प्रेमचंदोत्तर युग के एक सशक्त कहानीकार माने जाते है। इनके कई कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुका है। हिंदी कहानी में इनका स्थान मनोविश्लेषणवाद धारा में रखा जाता है। इस दौर के कथाकार हैं – अज्ञेय, इलाचन्द्र जोशी, जैनेंद्र आदि। मनोविश्लेषणवादी कथाकारों की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, ये लोग अपने पात्रों की सामान्यगति में सूक्ष्म संकेतों की निहिति की खोज करके उन्हें बड़े कौशल से प्रस्तुत करते हैं। जैनेंद्र की कहानी में व्यक्ति- मनोविज्ञान के दर्शन होते हैं। मानवीय दुर्बलता का सटीक वर्णन, जैनेंद्र जी करते हैं। जैनेंद्र अपने पात्र को बिल्कुल धरातल से उठा कर लाते हैं और उसका छाप पाठक के मन को झझकोर कर रख देता है। साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए भारत सरकार के द्वारा वर्ष 1971 में पद्म भूषण था वर्ष 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया। इनकी मृत्यु 24 दिसम्बर 1988 को हुआ। हिंदी साहित्य में अमूल्य योदान के कारण, जैनेंद्र जी हमेशा याद किए जाते रहेंगे।
आलोच्य कहानी :- दरसल कहानी उस समय की है जब हमारे देश अंग्रजों का गुलाम था। कहानी का क्षेत्र नैनीताल को चुना गया जो एक पर्यटन स्थल के रूप में विख्यात है। यहाँ देश- विदेश से हजारों पर्यटक आते हैं और नैनीताल की वादियों में सुकून खोजते हैं। कहानी की सुरुआत बड़े ही प्रभावी ढंग से किया गया है। लेखक अपने दोस्त के साथ नैनीताल घूमने आए हुए हैं। वो सब होटल में ठहरे हुए हैं। और शाम के वक्त वादियों की सैर पर निकले हैं। कहानी की आरम्भ व्यंग्यात्मक ढंग से हुए। निरुद्देश्य भटकते हुए लेखक, सड़क के किनारे एक बैंच पर बैठता है और वहाँ के दृश्य को देखने की कोशिश करता हैं। नैनीताल की शाम, वहाँ की वादियों का चित्रण के पश्चात वह देखता है कि हर उम्र में युवा – युवतियां सड़क पर इधर से उधर प्रवाहमान हैं , जिसका न ओर था न छोर। अंग्रेज, पराए देश से आकर हमारे सड़कों पर तन कर चल रहा है और हमारे अपने लोग दबे- दबे, आंखों  को जमीन में धाँसे हुए चल रहे हैं।”लाल- लाल अंग्रेज के बच्चे थे और पीली- पीली आंखें फाड़े, पिता की उंगली पकड़कर  चलते हुए हिंदुस्तानी नौनिहाल भी थे।” यहाँ पर जैनेंद्र जी बिल्कुल यथार्थवादी दृष्टि के साथ हमारे देश की विडम्बनाओं को रेखांकित किए हैं। हमारे समाज और उसकी वास्तविक स्थिति का ऐसा चित्रण प्रेमचंद जी की याद दिला देती है। आगे भारतीय पिता और अंग्रेज के पिता में तुलना किया गया है।”अंग्रेज पिता थे, जो अपने बच्चों के साथ भाग रहे थे, हंस रहे थे, खेल रहे थे। उधर भरतीय पितृदेव भी थे, जो बुजुर्गी को अपने चारों ओर लपेटे धन- सम्पन्नता के लक्षणों का प्रदर्शन करते हुए चल रहे थे। “यहाँ जैनेंद्र जी ने भारतीय सभ्यता और अंग्रेजी सभ्यता को दिखाएं है। जहां एक अंग्रेज का उद्देश्य जीवन में मिले आनंद के पल को खुल कर जीने की होती है वहीं हमारे सामज में जिम्मेदारी और आर्थिक बोझ के कारण असमय ही बुजुर्ग हो जाना आम बात है।इसी दरमियाँ अंग्रेज रमणियां और भारतीय नारी का चित्रण करते हुए कहानीकार दिखते है कि किस प्रकार वहाँ आजदी, निर्भीकता का माहौल है और अपने यहाँ के नारी की अपनी साड़ी को संभालने में लगी हुई, दबी हुई सड़क के किनारों को पकड़े हुए चल रही है।कुछ ऐसे भी भारतीय लोग थे जो अंग्रेजों के सामने दुम हिला रहे थे और अपने साथी के सामने आने पर अकड़ दिखने में नहीं हिचकते , ऐसा लगता माने अंग्रेज उसी को अपना उत्तराधिकारी बना देगा। ऐसे प्रवृत्ति के लोग हमारे समाज मे आज भी है, जो अंग्रेजी बोलते ऐसे अकड़ते जैसे मानो अंग्रेज चले गए अपना संतान छोड़ गए हो।ऐसे लोगों में असभ्यता की सीमा तो देखिए,  हिंदी बोलना तो दूर वो हिंदी बोलने वालों को इस निगाह से देखते हैं जैसे की वो इंसान अपनी मातृभाषा बोल कर कोई बड़ा गुनाह कर बैठा हो। जैनेंद्र जी ऐसे लोगों को नमूना कहा, ‘भारतीय नमूना’। खैरलेखक वहाँ से निकलते हैं। रास्ते में उन्हें दो दोस्त का होटल मिला कुछ देर गप्प मार कर वहाँ से जाने की इच्छा जताते हैं पर उनके दोस्त ‘जरा ठहरिए’ कह कर कई घण्टा रोक लेता है। ठंड के मारे हमारे लेखक महोदय की जान निकल रही है, मन ही मन सोचते है कि “इस ओवरकोट के ऊपर भी अगर एक कम्बल और होता तो अच्छा होता।”इतने में उस घने कोहरे के बीच से कुछ आता हुआ दिखाई दिया। वह दस- ग्यारह साल का लड़का था। गोरे रंग का है पर मैल के कारण काला नजर आ रहा था। नंगे पैर, नंगा सिर, एक मैली सी कमीज। पता नहीं दुनिया से बेखबर हो कर कहाँ जा रहा था, कहाँ जाना चाह रहा था। बस केवल अपने वर्तमान को देख रहा था और कदम दाएँ- बाएं , आगे- पीछे बढ़ा रहा था।लेखक के मित्र ने आवाज लगाई,  लड़का उसके पास आया। उसने पूछा कहाँ जा रहे हो ? जाबाज नहीं आया। क्योंकि उस बालक का कोई लक्ष्य नहीं था, वह जा भी रहा पर कहीं जा भी नहीं रहा। वह असहाय किसी दुकान पर काम करता था और रात्रि में वहीं सो जाता था पर आज उसे दुकानदार ने नौकरी से निकाल दिया है। काम के नाम पर दुकानदार उससे हर तरह का काम करबाता था पर मजदूरी के नाम पर 1 रुपया और जूठा खाना। इस तरह के मनोवृत्ति के सेठ, साहूकार, दुकानदार आदि आज भी हमारे समाज में बिखरा पड़ा है। जो एक बेबस, असहाय, गरीब, मजलूम, लड़कों को ऐसे ही बेगारी पर खटवा रहा है। भारतीय सामज के इस मनोवृत्ति का घोर वर्णन प्रेमचंद के कथा, उपन्यास में हुआ है। कफन कहानी की मूल समस्या बेगारी ही तो थी।लेखक के मित्र उस बालक से कई सबाल पूछते हैं जिस दौरान उन्हें पता चलता है कि, लड़का का गाँव यहीं पास में है । अपने घर की बेबसी, गरीबी को देख कर वह वहाँ से भाग गया है।  उसके साथ गाँव से एक और लड़का आया था। किसी साहब ने उसे इतना मारा की वह मर गया । हृदयविदारक प्रश्न- उत्तर  सुन कर मैं अपने आँख की आँसू को रोक नहीं पाया। ऐसी विडम्बना उस लड़के के या यों कहें कि भारत के हर गाँव के सामान्य जन की है।लेखक और उनके दोस्त उस लड़का को ले कर अपने एक वकील मित्र के पास आते हैं, शायद उस वकील को एक नौकर की जरुरत थी। यहाँ वकील के स्वरूप का चित्रण इस ढंग से करते है, जिससे पढ़ कर हर पाठक ठंड की कल्पना कर सकता है, और ऐसे परिस्थिति में उस बालक की स्थिति सहृदय पाठक को झझकोर देता है। मनोविश्लेषणवादी कथाकार जैनेंद्र इस प्रकरण का चित्रण करके पाठक के मन को छू जाते है। बरहालवकील को इस लड़के पे विश्वास नही  होता वो उसे नौकरी पर रखने से साफ मना कर देता है। लेखक और उनके मित्र निराश हो कर होटल से बाहर आते हैं। लेखक के मित्र के हृदय में दया का भाव  है ,  वो उस लड़के की मदद करना चाहता है, अपने जेब को टटोलता है और देखता है कि उसके जेब मे दस- दस के नोट पड़े है, और अपने बजट की चिंता की वजह से वो दस रुपए की नोट नहीं दे पाता है।”हृदय में जितनी दया है, पास में उतनी पैसा नहीं।” ” तो जाने दो , यह दया ही इस जमाने में बहुत है। “यहाँ जैनेंद्र जी जमाने की भाव को काफी गहराई से अभिव्यक्त किए हैं।वह लेखक से मदद करने को कुछ छुट्टा पैसा देने को कहता है पर उस समय लेखक के जेब में कुछ भी नहीं पड़ा था। लेखक के मित्र उस लड़के को कल सुबह आने को कहता है। और काम देने की वादा भी करता है। “वह बालक फिर उसी प्रेतगति से एक ओर बढ़ा और कुहरे में कहीं मिल गया।”अब दोनों मित्र अपने होटल की ओर चल दिए। अपने कमरे में पहुँच कर लेखक के मित्र ने कहा ” बहुत ठंड है।” लेखक कहते है ” पहले बिस्तर गर्म करो फिर किसी और की चिंता करना।”  यहाँ पर स्वार्थ की फिलॉसफी, जो पहले अपना चिंता करता है।अगले दिन वह लड़का नहीं आया। अपने छुट्टी समाप्त कर लेखक और उनके मित्र नैनीताल से विदा हुए। मोटर पर सवार होते ही उन्हें खरब मिली “पिछली रात, एक पहाड़ी बालक सड़क के किनारे, पेड़ के नीचे, ठिठुर कर मर गया।”लेखक सोचे हैं  “मरने के लिए उसे  वही दस बरस की उम्र, वही काली चिथड़ी कमीज,  आदमियों की दुनिया ने उसे बस इतनी ही दे सकी। “पर दुनिया की बेहयाई ढ़कने के लिए प्रकृति ने शव के लिए सफेद और ठण्डे कफ़न का इन्तिजाम कर दिया था। यही है अपना- अपना भाग्य।सम्पूर्ण कहानी भावना से भड़ी अपनी मार्मिकता के साथ आगे बढ़ी और भाग्य पर प्रश्न चिह्न लगा कर समाप्त हो जाती है। 
चरित्र चित्रण*बालक:–  कहानी का मुख्य पात्र यही 10 वर्ष के बालक है। जो गरीबी के कारण अपने एक साथी के साथ घर छोड़ कर शहर आ गया है । किसी साहब के द्वारा उसके दोस्त की हत्या कर दी जाती है । यह गरीब है पर मेहनती है। काम की तलाश में भटक रहा है और मरने वाली रात भी लेखक के मित्र से काम दिलाने की बात करता है। वह बेईमान नहीं था, मेहनती था। विधाता से वह दस वर्ष की आयु ले कर आया हुआ था और सभ्य समाज से उसे एक मैली कमीज मिली इसे ज्यादा कुछ नहीं।
*लेखक:- इस कहानी के एक पात्र लेखक है जो एक दर्शनिक विचार के लगते हैं। वो एक ऐसे पढ़े- लिखे लोग है जो केवल घटना पर टिप्पणी करते हैं। अपने मित्र को स्वार्थ की फिलॉसफी समझा कर उसे पहले खुद के बिस्तर गर्म करने की बात कहते है और बाद में दूसरों की चिंता की बात सोचने को कहते हैं। ये उदासीन प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं।
लेखक के मित्र:– ये दयालु स्वभाव के व्यक्ति प्रतीत होते हैं, जो एक गरीब बालक को अपने पास बुलाते हैं उसकी मदद करना चाहते हैं। उसे नौकरी दिलाने का प्रयास करते हैं । कुछ आर्थिक मदद करना तो चाहते हैं पर उन्हें अपनी बजट की भी चिंता होती है, जिस कारण वो तत्काल मदद न कर, उस बालक अगले सुबह अपने होटल के पते पर बुलाते हैं।इसके अलावे गौण पात्र वकील हैं जिसके अंदर मानवीयता का अभाव है। वकील चाहता तो उस लड़के की मदद कर सकते थे पर उसने ऐसा  नहीं किया। वकील, समाज के निष्ठुरता का प्रतीक है।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि जैनेंद्र ने अपने कहानी में पात्रों की व्यवस्था काफी यथार्थवादी दृष्टिकोण से किए । हर पात्र और उसका चरित्र काफी जीवंत लगता है।
भाषा और शैली:- मनोविश्लेषणवादी कहानीकार के भाषा में सरलता रही है जो पाठक के मन की गहराई को आसानी से छू लेता है। सरलता, सरसता, कोमलता इनके भाषा के गुण हैं।जहाँ तक शैली की बात है, हमारे आलोच्य कहानी यर्थाथवादी शैली में लिखी गई है। आरम्भ से अंत तक का वर्णन यथार्थ ढंग से हुआ है।
उद्देश्य:- ‘अपना – अपना भाग्य’ कहानी के द्वारा कहानीकार जैनेंद्र जी ने सामाजिक विषमता का सटीक चित्रण किए हैं। समाज मे गरीब, लाचार, बेबस मनुष्य का शोषण दिखाने की कोशिश करना, जैनेंद्र जी का उद्देश्य था।  “सब काम। एक रुपया और जूठा खाना।” क्या यह शोषण नहीं ? गाँव से आए गरीब लड़के के साथ उसका एक दोस्त भी आया था । जिसे “साहब ने मारा, मर गया। ” समाज के क्रूर मानसिकता प्रवृत्ति के लोगो के चेहरे को परत दर परत खोल देना ही इस कहानी का उद्देश्य है।उस बालक की मृत्यु भी ठंड और भूख  के कारण हो जाती है। इस से ज्यादा क्रूर समाज और क्या हो सकता है ? जहाँ 2- 3 मित्र मिल कर भी उस बालक को कोई सहयोग नहीं दे सकता। हमारे समाज मे इस कहानी के वकील नामक पात्र जैसे भी कुछ लोग हैं। कहानी के एक पात्र लेखक जैसे पढ़े लिखे लोग भी है जो अपने दोस्त के द्वारा यह कहने पर की वह लड़का कैसे इस ठंड में रात काटेगा ? इस पर अपने दोस्त को स्वार्थ की फिलॉसफी समझाते हुए कहता है – “पहले अपना बिस्तर गर्म करो, फिर दूसरों की चिंता करना।” समाज के इन्ही मनोदशा का यथार्थ चित्रण इस कहानी का उद्देश्य है।

शीर्षक की सार्थकता:- ‘अपने-अपने भाग्य’ समाज के उस गरीब , बेबस, लाचार बालक के जीवन पर केंद्रित है जो, गरीबी, बेबसी,  लाचारी से तंग आकर मात्र दस वर्ष की आयु में घर छोड़ कर भाग जाता है। शहर आकर काम की तलाश में भटकता है । परन्तु शहर में उसे बेगारी खटना पड़ता है। इस प्रकार समाज की विषमता के कारण ठंड और भुख की वजह से मर जाता है। उसके साथ उसके गाँव का एक और लड़का आया हुआ था पर किसी साहब ने उसे मारते – मारते मार दिया।  इस दोनों लड़के की मृत्यु को भले ही समाज उसका भाग्य मानता है। पर सच्चाई क्या है ? सच्चाई है कि उस दोनो की हत्या समाज ने की है । वे दोनों बालक ये भाग्य ले कर, असमय मरने, नहीं आया था। एक को समाज के उच्च वर्ग के किसी साहब में पीटते-  पीटते  मारा है, वहीं दूसरे बालक को समाज की विषमता, निष्ठुरता ने मार दिया। समाज मे कहानी के पात्र लेखक जैसे भी बुद्धिजीवी हैं जो केवल घटनाओं पर टिप्पणी करता है लेकिन सहायता ने नाम पर बिल्कुल शून्य है। गरीब को उसके भाग्य के सहारे छोड़ देते हैं और उसकी त्रासदी को उसके भाग्य का कारण बता कर अपने जिम्मेदारी से मुक्ति पाते हैं।हमारे समाज में आज भी कहानी के पात्र, लेखक जैसे अनेकों बुद्धिजीवी है जो बस घटना को तठस्थत हो कर निहारते रहते। आज के दौर में जब पूरे मानवता पर खतरा आया हुआ है, पूरा विश्व एक महामारी से जूझ रहा है। ऐसे समय हमारे देश की बड़े- बड़े शहरों में देखा गया है कि गाँव से आए मजदूर वर्ग की उपेक्षा हो रही है। तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग हर शाम टेलीविजन पर आ कर ज्ञान बघारते रहते है परंतु सहायता के नाम पर बिल्कुल कहानी के पात्र  लेखक, वकील जैसा व्यवहार है। बिल्कुल निष्ठुर।जैनेंद्र कुमार की महत्ता आज भी बरकरार है, क्योंकि उनकी रचना आज के दौर में भी बिल्कुल फिट बैठता है।

अनंत कुमार ( दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र हैं)

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *