काम / कामायनी / जयशंकर प्रसाद साहित्य जन मंथन

काम / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

काम / भाग १ / कामायनी / “मधुमय वसंत जीवन-वन के,बह अंतरिक्ष की लहरों में।कब आये थे तुम चुपके से,रजनी के पिछले पहरों में? क्या तुम्हें देखकर आते यों,मतवाली कोयल बोली थी?उस नीरवता में अलसाई,कलियों ने आँखे खोली थीं? जब लीला से तुम सीख रहे,कोरक-कोने में लुक करना।तब शिथिल सुरभि आगे पढ़ें..

श्रद्धा / कामायनी / जयशंकर प्रसाद साहित्य जन मंथन

श्रद्धा / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

श्रद्धा / भाग १ / कामायनी कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि,तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक।कर रहे निर्जन का चुपचाप,प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत,जगत का सुलझा हुआ रहस्य,एक करुणामय सुंदर मौन,और चंचल मन का आलस्य। सुना यह मनु ने मधु गुंजार,मधुकरी का-सा जब सानंद।किये मुख नीचा कमल समान,प्रथम आगे पढ़ें..

आशा/ कामायनी / जयशंकर प्रसाद साहित्य जन मंथन

आशा/ कामायनी / जयशंकर प्रसाद

आशा / भाग १ / कामायनी / ऊषा सुनहले तीर बरसती,जयलक्ष्मी-सी उदित हुई।उधर पराजित काल रात्रि भीजल में अतंर्निहित हुई। वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का,आज लगा हँसने फिर से।वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में,शरद-विकास नये सिर से। नव कोमल आलोक बिखरता,हिम-संसृति पर भर अनुराग।सित सरोज पर क्रीड़ा करता,जैसे मधुमय पिंग आगे पढ़ें..

चिंता / कामायनी साहित्य जन मंथन

चिंता / कामायनी

चिंता / भाग 1 / कामायनी हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँहएक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह। नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। दूर दूर तक विस्तृत था आगे पढ़ें..

प्रयाणगीत साहित्य जन मंथन

प्रयाणगीत

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो, प्रशस्त पुण्य पंथ हैं – बढ़े चलो बढ़े चलो। असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी। सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी। अराति सैन्य सिंधु में – सुबाड़वाग्नि से जलो, प्रवीर हो जयी आगे पढ़ें..

अरुण यह मधुमय देश हमारा साहित्य जन मंथन

अरुण यह मधुमय देश हमारा

अरुण यह मधुमय देश हमारा। जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।। सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर। छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा।। लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे। उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।। बरसाती आँखों आगे पढ़ें..

सब जीवन बीता जाता है साहित्य जन मंथन

सब जीवन बीता जाता है

सब जीवन बीता जाता है धूप छाँह के खेल सदॄश सब जीवन बीता जाता है समय भागता है प्रतिक्षण में, नव-अतीत के तुषार-कण में, हमें लगा कर भविष्य-रण में, आप कहाँ छिप जाता है सब जीवन बीता जाता है बुल्ले, नहर, हवा के झोंके, मेघ और बिजली के टोंके, किसका आगे पढ़ें..

भारत महिमा साहित्य जन मंथन

भारत महिमा

हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक व्योम-तम पुँज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत सप्तस्वर सप्तसिंधु आगे पढ़ें..

बीती विभावरी जाग री साहित्य जन मंथन

बीती विभावरी जाग री

बीती विभावरी जाग री! अम्बर पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा नागरी! खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा किसलय का अंचल डोल रहा लो यह लतिका भी भर ला‌ई- मधु मुकुल नवल रस गागरी अधरों में राग अमंद पिए अलकों में मलयज बंद किए तू अब तक सो‌ई है आली आँखों में आगे पढ़ें..

आह ! वेदना मिली विदाई साहित्य जन मंथन

आह ! वेदना मिली विदाई

आह! वेदना मिली विदाई मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई छलछल थे संध्या के श्रमकण आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण मेरी यात्रा पर लेती थी नीरवता अनंत अँगड़ाई श्रमित स्वप्न की मधुमाया में गहन-विपिन की तरु छाया में पथिक उनींदी श्रुति में किसने यह विहाग की तान उठाई लगी आगे पढ़ें..