एक जुट हो रहा समाज

एक जुट हो रहा समाज साहित्य जन मंथन

चाइनीज वायरस के प्रकोप से जहाँ सम्पूर्ण विश्व त्राहि त्राहि कर रहा है, वहीं भारत भी इससे अलग नहीं रह सका, देर से ही सही लेकिन इस महामारी ने भारत में भी अपने पैर जमाये हैं, परंतु भारतीय प्रशासन और समाज की सजग भागीदारी द्वारा इस चाइनीज वायरस से छुटकारा पाने के हर सम्भव प्रयास किये जा रहे हैं ताकि शीघ्रातिशीघ्र इस महामारी से राहत पाई जा सके। जब इस वायरस के निवारण हेतु ‘लॉक डाउन’ की घोषणा की गई। उसका स्वागत आम जन ने हर्षित होकर किया। उनको विश्वास था कि पहले की भांति एक दिन फिर देश में खुशहाली होगी, सब साथ बैठेंगे, खाएंगे और गाएंगे। परंतु लॉक डाउन की घोषणा और माह का अंतिम सप्ताह,जो जहां है उसका वहीं रहना सुनिश्चित किया गया,इसे जनता द्वारा ईमानदारी से हर्षित होकर निभाया भी गया, लेकिन  इस परिस्थिति में निरंतर बढ़ती महामारी को देखते हुए, शहरी आम जन पर आशंका के बादल भी घिर आये, वे अपने पैतृक स्थान पर लौट जाना चाहते थे क्योंकि आने वाले समय में वे भोजन की व्यवस्था के साथ ही मकान के किराए की आपूर्ति कर पाने में असमर्थ हो जाते, इस कारण वो लौट जाना चाहते थे। ऐसे ही एक परिवार को हमने चिंतित अवस्था में देखा,कुछ माह पूर्व हमारे मकान में एक नवविवाहित दम्पति आये थे, शहर में नए होने के कारण उनकी गृहस्थी ठीक से व्यवस्थित नहीं हुई और नौकरी लग ही पाई थी कि चाइनीज वायरस के प्रसार को रोकने के लिए लॉक डाउन की घोषणा की जा चुकी थी, सर्वप्रथम पिताजी ने उन्हें आश्वासन दिया कि यहां उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी, और यदि वे किसी तरह जाना ही चाहते हैं तो वे उनकी पूरी सहायता करेंगे, किन्तु पुलिस प्रशासन की व्यवस्था के कारण वे उस रात नहीं जा सके और तब से वह नवदम्पति अपने कमरे में रहते हुए हमारे परिवार का ही हिस्सा बना हुआ है।इस दुःखित समय मे यह एक सुखद अनुभव है कि वह नवदम्पति राहत व कुशलता से है और शीघ्र ही लॉक डाउन समाप्त होने के पश्चात अपने गांव लौट जाएंगे। ऐसे समय में इस नई उपजी मानवीयता को देखते हुए सुखद अनुभूति होती है कि सर्वस्व नाश कर देने वाली इस महामारी से विश्व में जहाँ मृत्यु दर निरन्तर बढ़ रही है ऐसे में भारतीय समाज की संवेदनशीलता निरन्तर देश को सुरक्षित बनाये रखने के प्रयास में जुटी हुई है। इस सर्वग्रासी समय में समाज पहले से और अधिक संवेदनशील हो उठा है, अपने आसपास की परिस्थिति को देख कर समाज में मानवीयता चुप नहीं बैठ सकी और ऐसे में शहरों का वह रूप प्रस्तुत हुआ जो अब तक हिंदी कहानियों और उपन्यासों में ओझल था। मैं हमेशा से यही देखती और पढ़ती आयी हूँ कि शहर गांव से बिल्कुल भिन्न हैं। यहां कोई किसी की सहायता नहीं करता,न ही दूसरे की परेशानियों से उन्हें दुख दर्द होता क्योंकि शहर के लोग एक तरह से यंत्र में परिवर्तित हो चुके हैं जिन्हें एक बंधे बंधाये ढांचे में चलना ही है किंतु इस महामारी ने समाज को अतिरिक्त सम्वेदना दी है कि अपने आसपास की परिस्थितियों को समझा जाये, रुक कर असहाय की सहायता की जाए और यह तो माना हुआ सत्य है कि व्यक्ति से ही समाज बनता है और जहां प्रत्येक व्यक्ति सजग और संवेदनशील होगा उस समाज में कभी हृदयहीनता नहीं होगी और न ही वहां का कोई व्यक्ति सम्वेदना से रहित हो सकता है। इस सर्वग्रासी महामारी के काल में संपूर्ण समाज इससे मुक्ति पाने के लिए संवेदनायुक्त होकर एकजुट हो चुका है, मानवीयता जीत रही है इसलिए सम्पूर्ण देश भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ प्रतीत हो रहा है।

कमलेश

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